Friday, October 31, 2008

रिश्तों की रूहें

पतझड़ में जो पत्ते

बिछड़ जाते हैं अपने आशियाने से

वे पत्ते जाने कहाँ चले जाते हैं !

वे कहीं भी जाएँ

पर उन सूखे पत्तों की रूहें

उसी आशियाने की दीवारों पे

सीलन की तरह बहती रहती है

किसी भी मौसम में

ये दीवारें सूखती नहीं

ये हमेशा नम बनी रहती हैं

मौसम रिश्तों की रूहों को सुखा नहीं सकते।

Thursday, October 30, 2008

आज भी खड़ी हूँ !!!

सालों साल

फटी-उघडी देह में जीते हुए

तुम्हारे आने की आस तापती रही

और हमेशा उस किनारे से लगी रही

जहां से तुम्हारी धार गुजरनी थी

आज भी खड़ी हूँ

उसी किनारे पे

तू किधर से भी आ

मैं बह चलूंगी।

Thursday, October 16, 2008

रात को अलाव में काटा है

रात को अलाव में काटा है

नींद आँखों में गिरती हीं नहीं।

साहिल पे गया था कल शाम को

रेत पे तेरा नाम लिख के आया था.

एक सुकून है तेरे नाम में याद करता हूँ

तो सांस आती है।

रिश्ते टूट कार अलग हो जाते हैं

तो शायद दो रिश्ते बन जाते हैं।

जो आशियाना हम नही बना सके

आजकल मैं उसी में रहता हूँ।

उस बालकनी से दिखता है

समंदर लहरों में मेरा अक्स भटकता है.

Tuesday, October 14, 2008

इनकार करती हैं


दर्ज करती हैं ये
हर रात मेरे ख्वाबों पे अपना बोसा

जिंदा करती हैं खामोशियों को

लबेन तेरी मेरे लबों पे गुलाब रखती हैं।

मैं इस पल में हूँ

और ये बीती रैना

पर ये ज़्यादा जिंदा हैं ।

तेरी ठहरी आवाज़ों पे कान रख के

अपनी कई तन्हाईयाँ काटी हैं मैंने

और सुबह सुबह उठ कर कई बार

बिस्तर की सलवटों में पाया है तुझे मैने

कहा था ना कि तुम जा नही paaogi.

Monday, October 13, 2008

बातें जगह घेरती हैं



बातें आती हैं जाती हैं पर खत्म नही होतीं
ढूँढती रहती है अफ़सानों में अपनी जगह
खोलती रहती हैं पुरानी सन्दुकेन
यादों की पुरानी जंग लगी तहें.

बातें दूर तक साथ जाती हैं
गर उन्हें किसी नम रसीले गले का सहारा मिल जाता है
गर किसी अहसास के साथ उन्हें किसी अफ़साने में जगह दे दी जाती है.

पर आवाज़ और अफ़साने की गैर हाज़िरी में भी वे
अपने पूरे वजूद के साथ जिंदा रहती है
और वक़्त बे-वक़्त हमें सराबोर करती रहती है

बातों का वजूद हमारे अडोस पड़ोस में हमेशा जगह घेरती है

मुझे तलाश है

उनकी छुअन अब नही लगतीं वे खाली-खाली से रह गये मौसम हैं
पेड़ो पे लद भी जाएँ तो शाखें नही झुकतीं

वो जो धरती के सबसे नायाब मौसम थे,
वो भरे-पुर महकते मौसम फ़िज़ाओं से जाने कैसे गायब होते गये.
अब ना तो उनके स्पर्श घुमड़ते हैं आसमान में और,
ना हीं उनकी बूंदे गिरती हैं छतरियों पे.
जैसे की यादों में गिरा करती थीं.

धूप का वो टुकड़ा कहीं खो गया है
जह दुपहरी भरी रहती थीं
छत के चादर पे.

मैं तलाश में हूँ उसके जो
उस मौसम का स्पर्श लौटा सके.

Wednesday, October 8, 2008

एक टुकड़ा शब्द


लहू-लुहान
तड़पता रहा देर तक
और दम तोड़ दिया आखिर.

सारे आवाज़ एक बार फिर तोड़ दिए थे
फर्श पे पटक के उसने.

सन्नाटा दीवार के कानो पे बर्फ हो गया था
और जिंदा बचे अल्फाज़
पूरी ताकत से अपनी कंपकंपी संभाल रहे थे.

ऐसा हीं हो जाया करता था अक्सर.

एक दिन अपनी आवाज़ उठा के वो चली गयी
और दीवारों को सन्नाटे में छोड़ दिया