Tuesday, September 29, 2009

तुम्हारा जन्म दिन!


उठो,
देखो खिड़की खोल कर,
बालकनी से झाँक कर
सूरज, लाया है आज
कुछ ख़ास कशीदे बुनकर किरणों की

कई साल पहले
आसमान के तारों पे अपने नन्हे पाँव रखते
उतर आई थी एक एंजेल
जमीन पे
शक्ल उसकी ओस के बूँद सी थी
और खिलखिलाई थी वो
जिंगल बेल की आवाज में

सुनकर,
सूरज नाचा था तब भी
नाचता है आज के दिन हमेशा
और बुनकर लाता है कशीदे

आज भी वही दिन है
आज भी सूरज लाया है
किरणों के वही कशीदे
और नाच रहा है
बिना रुके

आज भी वही दिन है
तुम्हारा जन्म दिन!
है ना !!

Monday, September 28, 2009

दर्द की जो शक्ल है!

[गौतम राजरिशी, अनुराग जी से पता चला कि......, दुआ है जल्दी से जल्दी ठीक हो जाएँ ]

दर्द की जो शक्ल है
ठीक दिखाई पड़ती
तो पास बुलाता उसको
और कहता-

ठिकाना बदलना था
तो मेरे यार का घर हीं दिखा तुझको...

फिर चूमता उसको
या कान पकड़ता
और कहता
आ जा, इससे अच्छा तो मेरे घर हीं रह ले।

Sunday, September 27, 2009

सूखे लोगों की सभ्यता

मकान पक्के होते गये
और दीवारे भी

पक्के और सख्त साथ- साथ

दर्द सुनने के लिए न कान रह सके खुले
और न दिल के कोशे उनके
बारीक से बारीक पोर भी
पाट दिए गये
गारे-चूने से

कंपकपाती निरीह कराहें
उन दीवारों के दोनों तरफ
किसी कोलाहल का हिस्सा ही लगती रहीं

आसुओं से भींग कर
ढह जाने वाली दीवारें
बची नहीं इन पक्की उंची इमारतों में

अब
ये पक्के मकानों, सख्त दीवारों और सूखे लोगों की सभ्यता है
जहाँ आंसू पिघलाते नहीं और चीख कोलाहल लगती है.

Wednesday, September 23, 2009

दुःख की एक बड़ी लकीर !

[आज हीं यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित हुई है, आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं, पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत कर रहा हूँ. ]

कहीं भी
कोई जगह नही है
जिसे दश्त कहा जा सके
और जहाँ
फिरा जा सके मारा-मारा
बेरोक- टोक
समय के आखिरी सांस तक.

कहीं कोई जमीन भी नहीं
जिस पर टूट कर,
भरभरा कर,
गिर जाया जाए,
मिटटी हो जाया जाए
और कोई उठानेवाला न हो
और हो भी तो रहने दे पड़ा,
बिल्कुल न उठाये

छोड़ दे ये देह
और रूह भी साथ न दे
ऐसी परिस्थिति में
ले जाया जाए मुझे
जहाँ अनंत दुःख हो
और अकेले भोगना हो

मैं बस इतना चाहता हूँ कि
तुमसे अलग होने का जो दुःख है
उस के बाजू में
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ ।

सुबह तक तो हौसले में ले जरा !

मैं नींद को तेरे से लू चुरा
अपनी नजर में मुझे तू ले जरा

मैं तेरा हूँ, ये मुझे यकीन हैं
तू इसे अपनी यकीन में ले जरा

रात है घनी और तन्हाई टूटी हुई
सुबह तक तो हौसले में ले जरा

बुझने लगी है लपट जिंदगी की
अपने आग में उसे तो ले जरा

बदन में उग रहा है तू कहीं
अपनी आहटें आ के सुन ले जरा

कुछ लब्ज भटकते हैं बे-आवाज
तू अपने सुर में उसे तो ले जरा

Monday, September 21, 2009

जब कभी...

जब भी चूम लेता हूँ
श्वेत-श्याम तस्वीर में
तेरे होठों को,

वे सुर्ख लाल हों जाती हैं

Saturday, September 19, 2009

आँख में पकडी गयी चाँद के मैं !

१)
सर्द हवाएं हिलोरें लेती हैं जब-जब,
याद आती है तुम्हारी हथेलियों पे रची

मेंहदी की लाल आग.

२)
कल आँख में पकडी गयी
चाँद के मैं,

उसकी आँखें बड़ी सच बोलती हैं

३)
वो आई तो
मैने शाख बढ़ा दी.

वो धूप थी, छाँव बनने की आरजू में

४)
भर गयी आवाज़ उसकी जब
मेरी दास्ताँ सुनकर,

मैने वहाँ से कुछ नज्में निकाल ली

५)
किताबों में,
पहले नदियाँ मिल जाती थीं

अब बादल यूँ हीं आवारा फिरते हैं



Wednesday, September 16, 2009

बीच का पुल

बीच का पुल

टूट जाये

तो भी

रिश्ते

भर-भरा कर

गिर नही जाते.

वे

किनारे पे खड़े

इंतिज़ार करते रहते है

कि

कब ये पुल जुड़े

और

फिर वे चलें.

Tuesday, September 15, 2009

तेरे माहौल में रहा करता हूँ !!

अक्सर चला जाता हूँ
अपने किनारे से चलते हुए
तुम्हारे मंझधार तक
अनजाने हीं तुम्हारे बहाव में बहते हुए

खाली कर के रखता हूँ
हमेशा कुछ स्थितियां
ताकि तुम आओ तो
कुछ भर सको उनमें अपनी पसंद का

तुम्हारी ताप में जाकर
स्थिर हो रहना
मुझे देता है
खुद को कायम रखने की ऊर्जा
और तुम्हारे ख्वाब में जाकर हीं
पूरी होती है मेरी नींद

मध्धम से तेज
हर तरह की धुप में
तुम्हारा रूप भरता रहता है
मेरे बदन के कोशे कोशे को

जब कभी रात
अपने खालीपन में
लडखडाती हुई गिर जाती है
सुबह उठ कर पाता हूँ
तेरी ही जमीन को
नीचे से थामे हुए उसको

दरअसल
तेरे माहौल में होना हीं
सही मायने में मेरा होना है

Sunday, September 13, 2009

वे जाने कबसे भटकते हैं !!

एक नींद से
दूसरे नींद तक के वक्फे में
भटक गए हैं
हमारे कुछ ख्वाब

वे जो भटके हुए ख्वाब हैं
उनके अक्स,
कभी दरवाजे के उस पार से
कभी खिडकी,
कभी रोशनदान से
लगातार झांकते रहते हैं

हमारे चेहरों को
लगातार ताकते हैं वे ख्वाब,
इस आस में कि
पा लिए जाएँ

वे दिखाई भी पड़ते हैं
पर उन्हे अब वापस पा लेना
किसी भी नींद के वश में नही

उन भटके हुए ख्वाबों का
भटकाव
दरअसल
हमारा ही भटकाव है

और यह तय है कि
हम अब कभी आँख में
नहीं लिए जा सकेंगे।

Friday, September 11, 2009

नादान

लाख बुलाया,
कितनी आवाज़े दी
पर माना नही
छत से उतर कर जीने पे बैठ गया आखिरकार

कहता है
बिना चाँद लिए उतरेगा नही

कितना नादान है
ये दिल मेरा!

Wednesday, September 9, 2009

तेरे इश्क में

मैं हूँ अभी
इतना गतिमान
कि हूँ न्युटन के गति नियमों से परे
और इतना निरपेक्ष
कि आइंस्टीन है स्तब्ध.

मैं हूँ अभी
तेरे इश्क में.

Monday, September 7, 2009

सिर्फ तुम पर है !!!

अपनी लौ से लबरेज हथेली
रख दो आज
मेरी तनहा हथेली में

बरसों से परत-दर-परत
जमा हुआ मोम
पिघला कर
बहा दो
मेरी आँखों के कोरों से

ओस सी चिकनी
और पारदर्शी सुबह
उगा दो मेरी आँखों में

समझ लो
अपनी हथेली से
मेरी हथेली कों

मेरा होना अब
सिर्फ तुम पर है

Saturday, September 5, 2009

अभी-अभी उसके ख्वाब से लौटी हूँ !!

आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,

आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के

फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी

फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में

जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए

ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है

Thursday, September 3, 2009

कुछ लब्ज रह जाते हैं बे-नज्म भी !!!

कुछ लब्ज पसरे हुए हैं
जैसे मीलों चलकर आये हों कहीं से

आँखों में उनके
ढेर सारा नींद बिछा है
और पलकों पे सलवटें हैं

रात भर
इक नज्म क़ी मिट्टी कोडते रहे वो
रात भर
सांस फंसी रही उनकी मिट्टी में

पर ना कोई शक्ल बनी नज्म क़ी
और ना तलाश को
मिला कोई सुर्ख रंग
बस लम्हा-लम्हा खाक होती चली गयी रात.

उन्हें तो बस रंग जाना था,
सुर्ख रंग में
इक नज्म के,
और बह जाना था
उसके किनारे से लग कर

पर
हर बूँद को कहाँ मिलती है नदी
बह कर सागर तक पहुँचने के लिए
और न पिया के रंग में रंगी चुनर हीं
हर किसी को

कुछ लब्ज रह जाते हैं बे-नज्म भी !!!