Thursday, December 31, 2009

बस थोड़ी देर और...

हालाँकि रात के तलवों में
चुभा पाला अभी नुकीला है,

और सुबह जब भी मुंह खोलती है
धुंध उगलती है

वक्त के माथे पर ठंड का एक बड़ा सा गूमड़ है
और पीठ पर कोहरे का भारी बोझ ,

पर फिर भी
वक्त अभी डटा हुआ है
और कहता है सूरज लेकर ही आयेगा ......
नयी ऊर्जा का ,
नये रंग का ,
नये साल का .......

वक्त की इस कोशिश में
मै साथ हूं उसके,
और मै जानता हूँ आप सब भी जरूर होंगे


मुझे, आप सबकों और वक्त कों
इस कोशिश के लिए
शुभकामनाएं ....................


Sunday, December 27, 2009

ये दर्द रोज कम होता जा रहा है !!

सूरज जल्दी-जल्दी डूब कर
शाम कर दिया करेगा
और शाम अपने तन्हाई वाले हाथ रखने के लिए
मेरे कंधे नही तलाशा करेगी

तमाम खीझ और उब के बावजूद
आत्मा बार-बार लौटा करेगी
वासना से लदी उसी सूजन वाले शरीर में
जिसे घसीटते रहने में

अब कोई उत्तेजना बाकी नही होगी

बिना तलब के हीं
मुझे जला लिया करेगा
थोडी-थोडी देर पे एक लंबा सिगरेट
और पी-पी कर मेरे ख़त्म होने का
इंतज़ार किया करेगा

रात पे कान रख के
मैं सहलाना चाहूँगा झींगुरों की आवाजें
और ख़राब होती टियुबलाईट की आवाज भी
मेरे मौन में कोई छेड़ नही कर पाएगी

आँखे जाग कर नींद देखने की
हर रोज कोशिश करेगा
पर कोई पागल सा सपना
उन्हें अफीम दे कर सुला दिया करेगा हर रोज

तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है

और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के

पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!

Tuesday, December 22, 2009

रातों को क्या फ़िर बातें किया करेंगे हम ! !

देह के बाहर जाकर
एक बेचैनी

चहलकदमी करती है देर रात तक,
शरीर में जरा दम सा घुटता है

बाहर बरामदे में
बिना बांह वाली एक कुर्सी है
जिस पे वो बैठ जाती है जरा-जरा देर चल कर
वहां एक सिगरेट लेने लगती है धुंआ अपने भीतर

शरीर से खींच-खींच कर

अन्दर धुंआ है अभी भी बहुत सारा और
बाहर धुंध पसरी है पलकों के क्षितिज पर,
परन्तु दृढ़ता से यह कहा जा सकता है कि
एक ख्वाब अभी भी टिमटिमा रहा होगा वहां
हालांकि वह बिना चाँद के होगा
पर उसके लिए यह दृढ़ होने का नही वरन कांपने का वक्त है
अचानक से नींद खींच कर उतार जो दी गई है

वक्त को काट दिया गया है

पर अभी भी वो बचा हुआ है
और जितना भी अब बचा है
शायद उसे और नही काटा जा सकता

तुम्हें गर ये मालुम होता कि
रात कितनी बची हुई है
और कि वक्त को अब और काटा नही जा सकता
तो तुम कभी ये नही कहती
कि रातों को बातें नही किया करेंगे हम

Tuesday, December 15, 2009

मैं लौटूंगा !!!

सबके प्यार और समझ के लिए सबका शुक्रिया !! नंदनी का विशेष रूप से...मैंने पिछला पोस्ट हटा दिया है..शायद अब उसकी जरूरत नहीं है।

सभी लौटेंगे जानता हूँ...
मेरे लौटने से पूर्व मेरी कविता लौट रही है...

कुछ दुःख
एक झुण्ड में चुप चाप जा रहे थे
सड़क के किनारे उन्हें
जलता हुआ एक अलाव मिल गया है
घेर कर बैठ गए हैं सब
पर अभी भी चुप हैं
सर्दी बहुत है ना !!!

शायद जल्दी हीं गर्मी लौटेगी
इस कविता की तरह हीं !!!

Wednesday, December 9, 2009

मैं लौटूंगा !!!!

सबके प्यार और समझ के लिए सबका शुक्रिया !! नंदनी का विशेष रूप से...मैंने पिछला पोस्ट हटा दिया है..शायद अब उसकी जरूरत नहीं है।

सभी लौटेंगे जानता हूँ...
मेरे लौटने से पूर्व मेरी कविता लौट रही है...

कुछ दुःख
एक झुण्ड में चुप चाप जा रहे थे
सड़क के किनारे उन्हें
जलता हुआ एक अलाव मिल गया है
घेर कर बैठ गए हैं सब
पर अभी भी चुप हैं
सर्दी बहुत है ना !!!

शायद जल्दी हीं गर्मी लौटेगी
इस कविता की तरह हीं !!!

Sunday, December 6, 2009

मैं, रात का ये पहर और वह

रात के इस पहर में
जिसके बारे में कोई विशेषण मुझे अभी नहीं सूझ रहा है
और ना हीं बहुत स्पष्ट है कि
कविता के शुरुआत में इसे कितनी अहमियत दी जानी चाहिए
और कितना विशेषण
क्यूंकि हमेशा की तरह इस कविता में भी
मुझे तुम्हारे बारे में कहना है
या फिर तुम्हारे बिना मेरे बारे में

फिर भी अगर बयान करें तो
यह कहा जा सकता है कि इस पहर में
शराब पीकर नालियों में या सड़क के किनारे
अचेतन हालत में पड़े होंगे कुछ लोग
और हॉस्टल के कुछ आवारा लड़के
सिगरेट की तलब में
बाइक पे सवार होकर
आ रहे होंगे रेलवे स्टेशनों की तरफ
और कुछ बेघर मजदूर किसी पुल की फूटपाथ पे
पतली कम्बलों के नीचे बार बार करवट बदलते होंगे

इस पहर में
तुम्हारे बारे में कुछ कहने के लिए
बहुत सोंचना पड़ रहा है
क्यूंकि तुमसे बिछड़ने के इतने लम्बे समय बाद
मुझे जरा भी भान नहीं कि
रात क्या रखती है तुम्हारे बिस्तर पे
जिसपे तुम सोती हो
और इस वक्त तुम नींद में होती हो या ख्वाब में
या अपने पति के प्रेम-पाश में
या फिर मुझे याद करती हुई जगी होती हो

अपने बारे में कहूं तो
मैं एक लगभग सुनसान प्लेटफार्म के
पत्थर की ठंढी बेंच पे
अपनी छाती पे दोनों हाथ बांधे
ये सोंचने के लिए बाध्य हूँ कि
इन बंधे हुए बाहों के बीच तुम्हारा होना
एक जरूरी बात थी जो कि हो नहीं पायी

मैं अक्सर आ कर बैठता रहा हूँ
प्लेटफार्म की इस ठंढी बेंच पे
क्यूंकि मुझे लगता रहा है कि
खाली प्लेटफार्म पे किसी दिन एक घर मुझे पा लेगा
और उस वक्त ऐसा नही हो कि उसे मुझे ले जाना हो
और कोई ट्रेन नही हो

मुझे ये करीब-करीब पता है कि
प्लेटफार्म के बिल्कुल उस तरफ़ एक जर्जर हो चुकी संरचना है
जिस पे ' abondoned ' लिखा है
मैं वही हूँ
पर फ़िर भी जाने क्यूँ इंतज़ार है कि
तुम मेरे छाती के सफ़ेद बालों में
अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए प्यार करने एक दिन अवश्य आओगी