Saturday, September 24, 2011

वक़्त रिअर ग्लास की तरह है

वक़्त मोड़ देता है
कभी कान उमेठकर हौले से
कभी बाहें मदोड़ कर झटके से
और कभी इस तरह कि
बस चौंकने भर का मौका होता है

वो मोड़ता है तो
मुड़े बिना मैं नहीं और वो भी नहीं
कोई और हो तो हो
इसका पता नहीं

जब आग लगी थी
और जब जलने का मजा था
हमारा मोम पिघल कर  मिलने लगा था
वक़्त ने हमें नाक से पकड़ा
और मोड़ कर हमारी पीठ एक दूसरे की तरफ कर दी

हम किधर गए
कौन से पार किये रास्ते
वो सिर्फ वक्त को मालूम होगा
मुझे बस ये मालूम है कि
वो पिघला मोम जमा नहीं

आँखों के पानी में सब धुंधले हुए
और यूँ लगता है कि
सब न जाने कितने कोस दूर है अब

पर ऐसा सिर्फ लगता है
वास्तव में है नहीं
दरअसल वक़्त रिअर ग्लास की तरह है
चीजें ज्यादा दूर दिखाई पड़ती हैं