Wednesday, March 28, 2012

कौन किसके माथे ?

रोजमर्रा की भागदौड़ में गिरते गए
और दोष मढ़ते गए गड्ढों के माथे

पता ही नहीं चलता अब सपनो का
जरूरतें जागती हैं सारी रात नींद के माथे

रहने दिया आखिर में बिना कुछ कहे
देर तक मगर हथेली रही आवाज के माथे

अब ये कहना मुश्किल बहुत है
गोली कौन दागेगा किसके माथे

उस समंदर पे बोझ कितना गहरा होगा
पानी वो नदी छोड़ गयी जिसके माथे

हर शाम वो एक तन्हाई लगा जाता है
पार्क के कोने में पड़ी उस बेंच के माथे

पेंड वो अभी कुछ देर पहले उजड़ गया है
 कई सदी से लगा था वो इस जमीं के माथे

Friday, March 2, 2012

कोई दूसरा तरीका नहीं

वक़्त को बैठा मना रहा हूँ
कि वो फिर आने दे एहसास में
उन शामों को 
जहाँ कविता देर तक
बैठा करती थी यहाँ-वहां शाखों पे
पत्तियों पर और कभी लेट जाया करती थी
घास के मैंदान में

ऐसे क्यूँ रूठे कि
कविता को दो गज जमीन भी नहीं
जहाँ अलफ़ाज़ बैठ सके
पैर फैला के

पहले रौशनदान से झाँक भी जाते थे गर बादल
तो शामें  खींच कर उन्हें
बारिश कर दिया करती थीं
जैसे एक सिरा धागे का पकड़ आ जाए
तो पूरी पतंग खींच लाया करते हैं बच्चे

अब खिडकियों से लग कर
बैठा रहता हूँ
सारा सारा दिन
पर कहीं से कोई अल्फाज नहीं गुजरता

वक्त से यह मान-मनुहार
सिर्फ इसलिए
क्यूंकि कविता के सिवा
कोई दूसरा तरीका नहीं होता
तुम्हें देखने का!