चाहे कितने भी बरस बीत गए हों
आजाद रहते किसी देश को
और कितने भी ज्यादा आजाद
होते चले हों गए हों वहां के लोग
हर किसी में
थोड़ी और आजादी की गुंजाइश
हमेशा बची रहती है
रोज नए फंदे हैं
रोज नयी जकड़नें
गुलाम होते चले जाना इतना आसान और लुभावना है
आजाद होना और आजादी कायम रखना मगर
मशक्कत से भरी एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरना है
जो होता है कइयों के लिए अंतहीन भी
आजादी की प्रक्रिया के बारे में
वह आदमी
शायद सबसे बेहतर बता पायेगा
जो सबसे ज्यादा लड़ कर आजाद हुआ हो
या फिर वो जो सबसे ज्यादा लड़ कर भी गुलाम हीं हो अब तक
अपनी लड़ाई से जाना है मैंने कि
आजादी सापेक्षता के सिद्धांत के परे नहीं है
जैसे कि गरीबी या फिर अमीरी
हम सब पारस्परिक आजादी की यात्रा में हैं
हमारी आजादी असमान है
हममें से ज्यादातर के लिए आजादी अभी दूर की चीज है
और हर घर तिरंगा लाने की, फहराने की जिम्मेवारी हमारी है
ज्यादा उनकी जो आजादी के ज्यादा नजदीक खड़े हैं...