Tuesday, March 3, 2009

सतह पर सवाल

किससे मिलूं
और किससे छिप कर निकल जाऊं
कि मिलने पर
कौन मुस्कुराएगा एक सच्ची मुस्कान

किससे खुलूं
और किससे नही
कि खुलने पर
कौन नही उठाएगा
फायदा मेरे कमजोरियों का

किसे दूँ उंगली
और किसे हाथ
कि हाथ बढ़ाने पर
कौन नही चाहेगा मेरे पहुँचा पकड़ना

क्या करूँ मैं

क्या वास्ता रखने के लिए
रखूं सिर्फ़ वास्ता
और शामिल हो जाऊं
उन्ही लोगों के भीड़ में
जो संशय और सवाल दोनों
एक साथ पैदा करते हैं

या फ़िर
इसी तरह जीता रहूँ
संशय और सवाल के बीच
ख़ुद को धकेलते हुए

5 comments:

Yogesh Verma Swapn said...

achcha q. sunder rachna.

आवारा प्रेमी said...

मौन के खाली घर में छम-छम बजे
ये कविता बड़ी प्यारी है.

Shikha Deepak said...

हर इंसान इसी दुविधा में है। सुंदर कविता।

संध्या आर्य said...

या फ़िर
इसी तरह जीता रहूँ
संशय और सवाल के बीच
ख़ुद को धकेलते हुए

sanshaya me jina gulami karne jaisi bat lagti hai.duvidha me jinewala insan khud ke sath shayad nyaaya nahi kar pata hai.aatma, jo hamesha sacha bolti hai, use sune aap khud b khud sanshaya se mukta ho jayege.

aapme itanee aatmavishwasa hai ki
har ek sawal ka jabab de sakte hai.

vandana gupta said...

prashna bahut sahi uthaya hai aapne ......har insaan isi mein uljha hai.

main sadhna ji ki baat se sahmat hun.unhone bahut sahi baat ki hai.