इसमें कोई अतिरंजन या रोमांटिसिज्म नहीं है
जब मैं कह रहा हूँ
कि आजकल रोज जुड़ रहा है थोड़ा-थोड़ा प्यार
हमारे बीच
पहले से जमा होते प्यार में
रोज बढ़ रहा है प्यार
रोज खिल रहे हैं
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब हमारे बीच
बढ़ते प्यार के साथ
यह एक अलग सा अनुभव है मेरे लिए
जिसमें कुछ सपने रोज हो रहे हैं पूरे
और बन रहें हैं रोज कुछ नए
उगने से पकने तक की
प्रक्रिया पूरी करके
बहुत खुश हो रहे हैं सपने
खुश हो रहे हैं
हमारे बीच के
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब.
यहाँ तक तो सब खुशनुमा है
मगर इसके उलट दूसरी तरफ
चढ़ रहा है पारा
झुलस रहे हैं गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब
जल रहे हैं सपने
और तापमान का तैश बढ़ता हीं जा रहा है
तापमान का बढ़ना
प्यार के बढ़ने जैसा नहीं होता
बल्कि उसके विपरीत
बढ़ा देता है पृथ्वी पे पहले से बेकाबू हुईं असमानताएं
पिघला देता है ध्रुवों का भविष्य
खेतों में मिटटी से खेलने वाले बच्चों को
ठेल देता है कट्टे* की फैक्ट्रियों में
हम कब तक सोते रहेंगे वातानुकूलित कमरों में
काटते रहेंगे पेंड
बर्बाद करेंगे पानी
बंजर करते रहेंगे खेत
कब तक देते रहेंगे चढ़ते पारे का साथ
और बढाते रहेंगे कट्टों की फैक्ट्रियां
*कट्टा = देशी पिस्तौल
[यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित/पुरस्कृत है. आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं. पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत किया है कुछ परिवर्तनों के साथ . ]
11 comments:
namste om bhaiya
निहायत ही ज़रूरी समसामियक रचना ...................जिंदगी की आपाधापी में मैं भी भूल गया जिंदगी को .........................दरअसल ॐ भाई की यह कविता ज़िन्दगी का अपरिहार्य वर्तमान हैं ..........नतमस्तक हूँ ...............प्रणाम !
कब तक देते रहेंगे चढ़ते पारे का साथ
और बढाते रहेंगे कट्टों की फैक्ट्रियां
यही कब तक ही तो पीछा कर रही है पर यह पीछा कब तक .. निजात कब मिलेगी
सुन्दर रचना
बहुत सुन्दर रचना है...
'वहाँ तक तो सब ठीक है'.......... पर आगे जो कुछ हो रहा है या होने वाला है उस पर आपकी नज़र कमाल की है ......... हार्दिक बधाई ॰
बेहतरीन रचना लगी!!
" भई वाह" के अलावा कहने को कुछ नही है.
कविता पुरुस्कृत होने लायक ही है बही... हालांकि शुरू में कुछ अटपटा लगा था लेकिन आपने बड़ी खुब्सुरुती से संभाला... समसामयिक होने से प्रासंगिकता और बढ़ गयी है... और आपकी शैली भी बखूबी झलक रही है.
ओम जी, आपकी चर्चा चिट्ठाचर्चा में अनेकों बार पढ़ी, पर ईमानदारी से...यहाँ पहली बार आयी हूँ. आपकी कविता मुझे बहुत अच्छी लगी...कभी फ़ुर्सत में सारी पढूँगी...अभी तो इस एक को ही महसूस कर रही हूँ.
बेहतरीन ! हर बार की तरह अन्तर तक प्रवेश करने वाली !
प्रस्तुति का आभार !
आपकी यह कविता हिंद-युग्म पर आते ही पढ गया था..और देर से ही सही मगर टीप भी आया था..इसे दोबारा परिवर्तित रूप पे पढ़ना अनुभव रहा..कुछ अच्छे परिवर्तन हैं मगर हमें तो पिछली वाली कविता की अंतिम पंक्तियाँ ज्यादा हांटिग लगी थी..खैर यहां पर पुनः
बढ़िया अभिव्यक्ति, बधाई!!:-)
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