लोग झिझके नहीं गले लगने में
और गले लगना इसलिए हो कि रोया जा सके
कंधें बचे रहें
रो कर थके हुओं के सोने के लिए
हँसना एक फालतू सामान हो
और हर इतवार हम निकाल दें इसे रद्दी में
ताकि रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
कवितायें तभी हों
जब भर जाएँ उनमें दुःख पूरी तरह
और कहानियों में भी
रुला देने की हद तक हो अवसाद
किसी भी तरह
बचा ली जाए रोने की परंपरा
ताकि जब पता चले कि
तुम्हें प्यार में इस्तेमाल किया जा चूका है
तो तुम रो सको,
पढ़ सको कवितायें
और कहानियों का सहारा हो.
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27 comments:
‘लोग झिझके नहीं गले लगने में’
लोगों में महिलाएं भी हैं ना :)
आपके ब्लॉग के बारे में कुछ दिन पहले ही महफ़ूज़ मियां ने बताया था, सही बताया था। गहरी बातें थोड़े से शब्दों में लिख जाते हैं आप।
जब तक जीवन रहेगा धरा पर, निश्चिंत रहिये रोने के लिये जगह रहेगी, और हंसने के लिये भी।
खूबसूरत अभिव्यक्ति।
बढ़िया कविता ..........
अच्छा लगा बाँच कर
हँसना एक फालतू सामान हो
और हर इतवार हम निकाल दें इसे रद्दी में
ताकि रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
रोना तो यूँ ही आजाता है ..जगह की कहाँ ज़रूरत होती है .
ताकि जब पता चले कि
तुम्हें प्यार में इस्तेमाल किया जा चूका है
तो तुम रो सको,
पढ़ सको कवितायें
और कहानियों का सहारा हो.
जब कविता या कहानी में अपने दर्द को पढते हैं तो आराम स लगता है ...बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
ताकि जब पता चले कि
तुम्हें प्यार में इस्तेमाल किया जा चूका है
तो तुम रो सको,
पढ़ सको कवितायें
और कहानियों का सहारा हो.
ओह! एक कटु सत्य कितनी सरलता से कह दिया और यही तो आपकी खूबी है किसी भी बात को सहजता से कह जाते हैं ।
मनोभावों की अच्छी अभिव्यक्ति की है आपने भाई. मुबारक.
ओम जी बहुत दिनों बाद फिर से इतनी उत्तम रचना पढी। सच कहूँ तो जगह हो न हो मगर आपकी रचना पढ कर हमेशा आँख नम होती है। बहुत संवेदनशीलता से लिखते हैं। बहुत बहुत शुभकामनायें
उनका दारुण विलाप सुन
वे लोग भी हो गए है उदास
जिनकी आँखों मे हमेशा
खटकती रही हैं प्रेमिकाएं ...!!!
गहरा और उसी छोड़ी जगह पर बैठा मेरा मन।
बहुत गहरा लिखते है आप.
सुंदर अभिव्यक्ति.
अच्छी कविता है भाई , थोड़ा शिल्प पर और काम करें ।
आज फिर आपकी कविता पढ़कर रोने का जी हो आया...
आओ मुझसे मिलो
बिना झिझके गले भी लगो
मैने बना लिया है
मौन का एक खाली घर
जहाँ मैं हूँ और मेरे कंधे
रो कर थके हुओं को सोने के लिए
एक जादू की झप्पी के बाद
रोने की नहीं होती कोई वजह
और इसीलिए मेरे घर में
हमेशा बची रहती है जगह...
सुंदर और गहरे भाव ।
ओम भाई, आप हमेशा लाजवाब कर देते हैं।
hridaysparshi abhivyakti...!
subhkamnayen...
manthan se upji maulik rachna...awesome !
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
रिश्तो के पहलु मे भी
तन्हाईयो की
झप्पियाँ पलती है
दर्द भी पिघलते है
होठो की मुस्कुराहट से
कपकपाती चौडी होठ भी
छुपाती है
कई मौसमो के बादल
आकाश का भी
सीना फट जाता है
बादलो की चौडाई से!
रिश्तो के कंधो पर
अश्को के बादल होते है
जो ढोते है
नजरो के काजल
और बचा लेते है
बुरी आत्माओ से !
आखिर में क़यामत ही छांटते हैं भाई
सच जब दर्द बढ जाये तो ये कविता और कहानियां ही तो ढांढस बंधाती हैं...बेहद सच्ची कविता...
बहुत बढ़िया ओम भाई ..... क्या बात है !!
hehe, बात तो सही कही है आपने ! अच्छा रचना. लिखते रहिये ...
कंधें बचे रहें
रो कर थके हुओं के सोने के लिए
रूदन और हास्य मानव और मानवता को संजोने के लिये जरूरी है.
सुन्दर भाव की कविता
कविता पढ़ कर न रो पाने पर खुद पर शर्म आती है..यहाँ रोना किसी दीर्धकालिक हँसी की प्रक्रिया की प्रस्तावना भर नही है..न यहाँ हँस पाना किसी रोने की प्रक्रिया का संभावित उपसंहार ही है..यहाँ ध्यान देने वाली बात मुझे लगी कि खुद रोना ऐच्छिक और इस लिये स्वीकार्य हो सकता है..मगर दूसरों को रोते हुए देखना एक त्रासद और कठिन अनुभव हो सकता है ...सो जब हम प्रथ्वी पर रोने के लिये हमेशा बची जगह के बारे मे सोचते हैं तो दुनिया के बारे मे कोई आश्वस्ति नही होती है..
हमारी जिंदगियों के तमाम अधूरेपन और आसपास बिखरी अपूर्णताओं के बीच रोना अगर दुनिया को बेहतर बनाता हो तो यही सही...:-)
रोने का मतलब अभी तक हमारी संवेंदंशीलता बरकरार है.
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