१)
जहाँ भी लौट कर आया हूँ
मिला है मुझे
एक पूरा घर तुम्हारे पास
तुम्हारा इंतज़ार
बना देता है किसी भी घर को मेरा अपना
इतने सालों तक अलग-अलग घरों में
तुम्हारे साथ रहते हुए
अब ये भली भांति पता है कि
घर बनाने के लिए
और कुछ नहीं
जरूरी है सिर्फ लौटना और इंतज़ार
२)
यह इतनी बार इत्तेफाकन नहीं होगा
कि तुम मेरी नींदों में
ख्वाब भरती हुई जगाती हो सुबह
और तब से
सारा दिन लम्हों को पकड़-पकड़ के
बांधती रहती हो एक खुशनुमा बादल वाला दिन
जिसकी शाम बारिश होती है
बाथरूम से नहा कर निकलते हुए
शरारतें तुम्हारे बालों में
इकठ्ठा होकर लट बना देती हैं
और तुम उन्हें कैसे झूठमूठ झटकती रहती हो
झूठ को कितना अच्छा लगता तब न!
किचेन में गुनगुनाती हुई
पकाती हो तुम सारंगी के जायके वाली
लौकी की सब्जी
और परोस देती हो जब दही के साथ
तब मुझे कुछ और नहीं चाहिए होता है
मैं होता हूँ तो तुम्हें कुछ और नहीं चाहिए होता है
३)
तुम्हारा इंतज़ार करता हुआ घर
मुझे लगता है
उस बहते पानी की कलकल धुन है
जो मंजिल पे पहुँचने की तमाम बेचैनी के बावजूद
अपने लय की मिठास नहीं छोड़ती
वो मुझमें भरता है
एक बिछोह से
जब जाने के लिए लौटता हूँ
वो मेरे पीछे दूर तक भागता चला आता है
मुझे मनाता, मनुहार करता हुआ
४)
गुनगुनी हंसी
और मीठी बोलियों से
संजोये रखती हो तुम घर की दीवारें
और कभी बनाती हो उनपे निशान ठहाकों से
ताज्जुब कराने को रखती हो तैयार
घर में दसियों औजार
तब लगता है कि घर की दीवारें ईंट और गारे से नहीं बनती होंगी केवल
नहीं तो वो कहाँ सुनती-बोलती
कभी होगा तो हम चल कर जाएंगे उन घरों के पास
जो बनाये हमने
लौटने और इंतज़ार करने से
और देखेंगे कि
कहीं उनकी दीवारों में कोई आंसू तो नहीं है !
मिला है मुझे
एक पूरा घर तुम्हारे पास
तुम्हारा इंतज़ार
बना देता है किसी भी घर को मेरा अपना
इतने सालों तक अलग-अलग घरों में
तुम्हारे साथ रहते हुए
अब ये भली भांति पता है कि
घर बनाने के लिए
और कुछ नहीं
जरूरी है सिर्फ लौटना और इंतज़ार
२)
यह इतनी बार इत्तेफाकन नहीं होगा
कि तुम मेरी नींदों में
ख्वाब भरती हुई जगाती हो सुबह
और तब से
सारा दिन लम्हों को पकड़-पकड़ के
बांधती रहती हो एक खुशनुमा बादल वाला दिन
जिसकी शाम बारिश होती है
बाथरूम से नहा कर निकलते हुए
शरारतें तुम्हारे बालों में
इकठ्ठा होकर लट बना देती हैं
और तुम उन्हें कैसे झूठमूठ झटकती रहती हो
झूठ को कितना अच्छा लगता तब न!
किचेन में गुनगुनाती हुई
पकाती हो तुम सारंगी के जायके वाली
लौकी की सब्जी
और परोस देती हो जब दही के साथ
तब मुझे कुछ और नहीं चाहिए होता है
मैं होता हूँ तो तुम्हें कुछ और नहीं चाहिए होता है
३)
तुम्हारा इंतज़ार करता हुआ घर
मुझे लगता है
उस बहते पानी की कलकल धुन है
जो मंजिल पे पहुँचने की तमाम बेचैनी के बावजूद
अपने लय की मिठास नहीं छोड़ती
वो मुझमें भरता है
एक बिछोह से
जब जाने के लिए लौटता हूँ
वो मेरे पीछे दूर तक भागता चला आता है
मुझे मनाता, मनुहार करता हुआ
४)
गुनगुनी हंसी
और मीठी बोलियों से
संजोये रखती हो तुम घर की दीवारें
और कभी बनाती हो उनपे निशान ठहाकों से
ताज्जुब कराने को रखती हो तैयार
घर में दसियों औजार
तब लगता है कि घर की दीवारें ईंट और गारे से नहीं बनती होंगी केवल
नहीं तो वो कहाँ सुनती-बोलती
कभी होगा तो हम चल कर जाएंगे उन घरों के पास
जो बनाये हमने
लौटने और इंतज़ार करने से
और देखेंगे कि
कहीं उनकी दीवारों में कोई आंसू तो नहीं है !
2 comments:
ऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!
Man ko chhu jane wale bhav.
Ye lekh bhi aapko pasand aayenge- Sustainable agriculture in India , Land degradation in India
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