Monday, January 26, 2009

अंधी ख्वाहिशें

संकरी होती गयी ये गलियाँ

घरों को लांघती हुई
गलियों तक आ गयी ख्वाहिशें,
अतिक्रमण करते हुए.
और फिर गलियों से सड़कों तक.
ख्वाहिशों का जाम
आए दिन सुर्ख़ियों में रहता है...

जैसे धमनियों की अंदरूनी दीवारों पे
वसा की परतें
जम कर
लहू के दबाब को बढ़ा देती है
माफिक उसके हीं
ये अंधाधुंध फैलती ख्वाहिशें
दुनिया पर दबाब बढ़ाए जा रही है

अब बाजार घर में है
और घर बाजार ही ज्यादा है
जहाँ इंसान से ज्यादा ख्वाहिशों का बसेरा है

बाजार की मार बेशुमार है
और बमुश्किल ही कोई निकल पाता है
इनसे होकर बिना पिटे अब


नयी नस्लों के खातिर
बनाए जा रहे हैं फ्लाइ ओवर
बढ़ रही हैं ख्वाहिशों की गति ...और तेज और तेज

आज की तारीख में
लगभग १.२ मिलियन लोग
सालाना ख्वाहिशों के शिकार हो रहे हैं
और
एक अनुमान के मुताबिक
ikkisavi सदी के मध्य तक
होने वाली मौतों का साठ फीसदी
ख्वाहिशों के आपस में टकराने से हुआ करेंगी
और तब ये एड्स, डायबिटीज या मलेरिया जैसे रोगों से
ज्यादा गंभीर समस्या होगी।

Sunday, January 25, 2009

वही मृत्यु

हरेक क्षण को
धकिया कर
काबिज हो जाता है
उसकी जगह पर
एक दूसरा क्षण

क्षण भर के लिए
हैं कितनी लडाईयाँ
है कितना द्वेष
कितने झूठ
कितनी घोषनाएं , गर्जनाएं
और फिर अंत में
वही मृत्यु

Friday, January 23, 2009

बिना माटी

यहाँ से
सात योजन दूर
मेरी कोई मिट्टी रहती है
और मैं
सात योजन दूर
बिना मिट्टी के रहता हूँ

सात बरस हुए
सात लंबे बरस
सात जाड़े, सात गर्मी और सात बारिश
सात होली-दीवाली
सात रोपाई, बुआई और कटायी
सरसो के फूलने और आम के मांजराने के मौसम सात,
सात मौसम बारातों के
और भी कई तीज-त्योहार,
सब सात-सात की गिनती में

निकल गये आँख से इन सात बरसों में

सात बरस
अपनी मिट्टी, हवा, पानी
और डोर से कट कर
सोंचता हूँ अब, तो
अपना हीं गाँव
सात योजन दूर लगता है

अब जाऊँ भी तो
कहाँ पहचान पाएगी
वो अन्हरमन वाली दाइ (दादी)
या भगवानपुर वाली काकी
शायद माई भी धोका खा जाए
एक बार तो

आखिर इन बरसो में
वो बदन भी तो उतर गया है
और उस बदन के साथ पहचान भी

अबएक तरफ वो गाँव हैं
जहाँ की हवा
कट गयी है मुझसे
और दूसरी तरफ
ये शहर
जहाँ अपना वजन उठाए उठाए
काँधे सूज गये हैं मेरे.

और बीच में मैं
जो सात योजन दूर
बिना मिट्टी के रहता हूँ.

Thursday, January 22, 2009

अपनी पीठ से जोड़ कर

मैं अक्सर सोंचता हूँ
अपनी पीठ को
तुमसे जोड़ कर

खास कर
पीठ के उस हिस्से को
जहाँ मेरी बाजुएँ
पहुँच नही पाती

मैं अक्सर सोंचता हूँ
कि सर्दियों के
एक इतवार को
छत पे मैं लेटा हूँ
और तुम
पीठ पे
तेल मल रही हो
या फिर
कभी नहाते समय
आ गयी हो बिना बुलाये
पीठ पे साबुन लगाने
या मैल निकालने के
डांट रही हो कि
मैं तो ठीक से नहा भी नही सकता

मैंअक्सर सोंचता हूँ
अपनी पीठ को
तुमसे जोड़ कर

कितना अच्छा हो
गर तुम भी
देख सको
मुझे कभी
अपनी पीठ से जोड़ कर

Wednesday, January 21, 2009

ढीले नही हुए कसाव

ढीले नही हुए कसाव
अलग होकर भी

शाम उदास नही है
तनहा होकर भी

नज्म अपने वजूद में जिन्दा है
लफ्ज खोकर भी

थमी नही है मौत
खा कर ठोकर भी

बीज अंकुराया है
पत्थर से होकर भी

मुझे पहुंचना है वहां
ताउम्र चलकर भी

कुछ भी नही हुआ
सब कुछ होकर भी

तू मेरी ही हुई
उसकी होकर भी