संकरी होती गयी ये गलियाँ
घरों को लांघती हुई
गलियों तक आ गयी ख्वाहिशें,
अतिक्रमण करते हुए.
और फिर गलियों से सड़कों तक.
ख्वाहिशों का जाम
आए दिन सुर्ख़ियों में रहता है...
जैसे धमनियों की अंदरूनी दीवारों पे
वसा की परतें
जम कर
लहू के दबाब को बढ़ा देती है
माफिक उसके हीं
ये अंधाधुंध फैलती ख्वाहिशें
दुनिया पर दबाब बढ़ाए जा रही है
अब बाजार घर में है
और घर बाजार ही ज्यादा है
जहाँ इंसान से ज्यादा ख्वाहिशों का बसेरा है
बाजार की मार बेशुमार है
और बमुश्किल ही कोई निकल पाता है
इनसे होकर बिना पिटे अब
नयी नस्लों के खातिर
बनाए जा रहे हैं फ्लाइ ओवर
बढ़ रही हैं ख्वाहिशों की गति ...और तेज और तेज
आज की तारीख में
लगभग १.२ मिलियन लोग
सालाना ख्वाहिशों के शिकार हो रहे हैं
और
एक अनुमान के मुताबिक
ikkisavi सदी के मध्य तक
होने वाली मौतों का साठ फीसदी
ख्वाहिशों के आपस में टकराने से हुआ करेंगी
और तब ये एड्स, डायबिटीज या मलेरिया जैसे रोगों से
ज्यादा गंभीर समस्या होगी।
Monday, January 26, 2009
Sunday, January 25, 2009
वही मृत्यु
हरेक क्षण को
धकिया कर
काबिज हो जाता है
उसकी जगह पर
एक दूसरा क्षण
क्षण भर के लिए
हैं कितनी लडाईयाँ
है कितना द्वेष
कितने झूठ
कितनी घोषनाएं , गर्जनाएं
और फिर अंत में
वही मृत्यु
धकिया कर
काबिज हो जाता है
उसकी जगह पर
एक दूसरा क्षण
क्षण भर के लिए
हैं कितनी लडाईयाँ
है कितना द्वेष
कितने झूठ
कितनी घोषनाएं , गर्जनाएं
और फिर अंत में
वही मृत्यु
Friday, January 23, 2009
बिना माटी
यहाँ से
सात योजन दूर
मेरी कोई मिट्टी रहती है
और मैं
सात योजन दूर
बिना मिट्टी के रहता हूँ
सात लंबे बरस
सात जाड़े, सात गर्मी और सात बारिश
सात होली-दीवाली
सात रोपाई, बुआई और कटायी
सरसो के फूलने और आम के मांजराने के मौसम सात,
सात मौसम बारातों के
और भी कई तीज-त्योहार,
सब सात-सात की गिनती में
निकल गये आँख से इन सात बरसों में
सात बरस
अपनी मिट्टी, हवा, पानी
और डोर से कट कर
सोंचता हूँ अब, तो
अपना हीं गाँव
सात योजन दूर लगता है
अब जाऊँ भी तो
कहाँ पहचान पाएगी
वो अन्हरमन वाली दाइ (दादी)
या भगवानपुर वाली काकी
शायद माई भी धोका खा जाए
एक बार तो
आखिर इन बरसो में
वो बदन भी तो उतर गया है
और उस बदन के साथ पहचान भी
अबएक तरफ वो गाँव हैं
जहाँ की हवा
कट गयी है मुझसे
और दूसरी तरफ
ये शहर
जहाँ अपना वजन उठाए उठाए
काँधे सूज गये हैं मेरे.
और बीच में मैं
जो सात योजन दूर
बिना मिट्टी के रहता हूँ.
Thursday, January 22, 2009
अपनी पीठ से जोड़ कर
मैं अक्सर सोंचता हूँ
अपनी पीठ को
तुमसे जोड़ कर
खास कर
पीठ के उस हिस्से को
जहाँ मेरी बाजुएँ
पहुँच नही पाती
मैं अक्सर सोंचता हूँ
कि सर्दियों के
एक इतवार को
छत पे मैं लेटा हूँ
और तुम
पीठ पे
तेल मल रही हो
या फिर
कभी नहाते समय
आ गयी हो बिना बुलाये
पीठ पे साबुन लगाने
या मैल निकालने के
डांट रही हो कि
मैं तो ठीक से नहा भी नही सकता
मैंअक्सर सोंचता हूँ
अपनी पीठ को
तुमसे जोड़ कर
कितना अच्छा हो
गर तुम भी
देख सको
मुझे कभी
अपनी पीठ से जोड़ कर
अपनी पीठ को
तुमसे जोड़ कर
खास कर
पीठ के उस हिस्से को
जहाँ मेरी बाजुएँ
पहुँच नही पाती
मैं अक्सर सोंचता हूँ
कि सर्दियों के
एक इतवार को
छत पे मैं लेटा हूँ
और तुम
पीठ पे
तेल मल रही हो
या फिर
कभी नहाते समय
आ गयी हो बिना बुलाये
पीठ पे साबुन लगाने
या मैल निकालने के
डांट रही हो कि
मैं तो ठीक से नहा भी नही सकता
मैंअक्सर सोंचता हूँ
अपनी पीठ को
तुमसे जोड़ कर
कितना अच्छा हो
गर तुम भी
देख सको
मुझे कभी
अपनी पीठ से जोड़ कर
Wednesday, January 21, 2009
ढीले नही हुए कसाव
ढीले नही हुए कसाव
अलग होकर भी
शाम उदास नही है
तनहा होकर भी
नज्म अपने वजूद में जिन्दा है
लफ्ज खोकर भी
थमी नही है मौत
खा कर ठोकर भी
बीज अंकुराया है
पत्थर से होकर भी
मुझे पहुंचना है वहां
ताउम्र चलकर भी
कुछ भी नही हुआ
सब कुछ होकर भी
तू मेरी ही हुई
उसकी होकर भी
अलग होकर भी
शाम उदास नही है
तनहा होकर भी
नज्म अपने वजूद में जिन्दा है
लफ्ज खोकर भी
थमी नही है मौत
खा कर ठोकर भी
बीज अंकुराया है
पत्थर से होकर भी
मुझे पहुंचना है वहां
ताउम्र चलकर भी
कुछ भी नही हुआ
सब कुछ होकर भी
तू मेरी ही हुई
उसकी होकर भी
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