Saturday, April 4, 2009

थोडी देर और !

कोई लब्ज नही,
कोई तरीका नही है मेरे पास
जिसके इस्तेमाल से
लिखी जा सके
मेरे भीतर उठ रहीं लपटें

बदन पे
जगह-जगह उगते
चेचक के जैसे फफोले
घड़ी -घड़ी फटता हुआ एक बम
और छिन्न-भिन्न होता हुआ कलेजा
किस तरीके से लिखा जा सकता है भला

मैं जानता हूँ
आपके लिए भी
मुश्किल होगा बता पाना
अगर मैं पूछूँगा

ये कमजोर लफ्ज
कहाँ तक छू भी पायेंगे
मेरे अन्दर के विस्फोटों को
उन लपटों को
इसका अंदाजा आप सब
आप सब लिखने वाले लोग
जरूर लगा पायेंगे
जो शब्दों की कमजोरी जानते हैं

पर फ़िर भी गर
मैं लेता हूँ
इन कमजोर शब्दों का सहारा
और कहता हूँ अपनी लपटें
ये जानते हुए भी कि कह न सकूंगा,
तो सिर्फ़ इस उम्मीद में
कि शायद ये कम कर सकें
मेरी लपटें,
मेरे विस्फोटों को लेश-मात्र भी

और मैं सह सकूं
उन लपटों
उन फफोलों को
थोडी देर और !

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है। सही बात है शब्दों में अपनें भावो को व्यक्त करना बहुत मूश्किल होता है।बहुत सुन्दर भाव हैं। बधाई।

ghughutibasuti said...

फिर भी इन्हीं शब्दों से आप बहुत कुछ कह गए।
घुघूती बासूती

संध्या आर्य said...

आप की एक एक पंक्तियाँ बहुत कुछ कह गयी

डॉ .अनुराग said...

शब्दों की महत्ता यही है