वो जो नहीं है अब
और जिसने मंझधार वक्त के किसी छोर
पर जाकर
किनारा कर लिया
उसकी गिनती एक में ख़त्म नहीं होती
मुझे नहीं मालूम कितनी आहें भरीं
उसने किनारे पे बैठ कर
या नहीं भरीं एक भी
पर मैं तब भी
किनारे की तरफ तेज दौड़ कर जाती लहरों
में
उसे छू कर थपथपाना चाहता था
और कहना चाहता था कि रुक जाओ
यह जानते हुए भी कि वक्त की
अपनी रवायतें हैं
और यह भी कि वो रुकेगा नहीं
उसके जाने के साथ
भीतर बहुत सारी चीजों ने
एक साथ दूर होकर
मुझे मंझधार की उबडूब में छोड़ा
वह प्यार था या नहीं
यह विवेचना का विषय हो सकता है
पर वह एक नहीं होता है
उसमें कई चीजें एक जगह इकठ्ठा
होती हैं
और इसका पता उसके जाने के बाद हीं चलता है
वो अब नहीं है पर बिलकुल हीं नहीं
हो ऐसा नहीं है
उससे जुड़ा हुआ बहुत कुछ अभी भी है
कुछ है जो ख़त्म हो कर उस मंझधार
में जीवित है
कुछ है जो खत्म होने को है
और कुछ है जो चलता रहेगा जब तक कि
वो ख़त्म नहीं हो जाता
और कुछ के बारे में यह कहना
मुमकिन नहीं
कि वे कब ख़त्म होती है और कब फिर
चलने लगती हैं
पर मैं उस समय में डूब कर ख़त्म हो
जाने के बावजूद
उसे हीं देखता हूँ जो अब नहीं है
और वो जो अब नहीं है
वो सिर्फ बीता साल नहीं है
और उसकी गिनती एक में खत्म नहीं
होती !
3 comments:
उसकी गिनती एक में नहीं
एक के, कई टुकड़ों में होती है...
वो जो नहीं होकर भी सदा होता है...
अवसाद के अंधेरे में मिली ज्योती है.....
सुंदर रचा है ।शुभकामनाएँ ।
नि:शब्द कर दिया आपकी इस कविता ने
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