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Monday, March 15, 2010

जाने क्यूँ आज ये प्यार छोटा पड़ रहा है

कितनी देर और,
भला कितनी देर और
लिखी जा सकती है इस तरह
इक तरफ़ा
प्रेम या विरह की कवितायें

हालांकि यह किसी शक या शिकवा करने जैसा है
और इसलिए मैं अभी तक बचता रहा हूँ यह कहने से
कि मुझे नहीं मालुम
तुम्हारी रातों में दरारें पड़ती हैं या नहीं
और अगर हाँ तो क्या वहां से कुछ रिसता भी है

जाने क्यूँ आज ये जरूरी सा लग रहा है
कि तुम्हारी भी रातों में दरारें हों
खास कर
जब मैं रिस रहा होऊं यहाँ अकेला
तुम भी बार-बार चिहुंक कर उठो नींद से
जब मेरी जीभ सूखे

मुझे आज क्यूँ ये लग रहा है कि
उस नीम के पेंड के सूखते तने में
कील से ठोक कर चली गयी मुझे तुम
और मैं रिस रहा हूँ वहां से लगातार कवितायें,
और तुम्हारी रातों में
इक दरार तक नहीं

जाने क्यूँ आज ये प्यार छोटा पड़ रहा है

जबकि मैं थोड़ी देर और लिखते रहना चाहता हूँ
प्रेम और विरह की कवितायेँ
इसी तरह
यह जानते हुए भी कि
तुम्हारी रातें हैं अक्षत...अविघ्न..