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Friday, March 5, 2010

मौसम पे जब भी छलक के गिरता है प्यार !

मै तुम्हें कितना कम प्यार देता हूँ
और उतने से हीं तुम
कितना ज्यादा भर जाती हो

ऐसा नहीं है कि
तुम्हारी धारिता कम है
या इच्छा

पर जितना
ख्वाब के भीतर रहकर
दिया जा सकता है प्यार
उतना मुश्किल होता है देना
ख्वाब के बाहर रहते हुए,
मेरे लिए और शायद किसी के लिए भी,
तुम जानती हो

तुम जानती हो
कि इस बदल चुके हालात में
जब कहीं-कहीं बहुत कम हो रहे हैं बादल
और कहीं-कहीं बहुत ज्यादा हो रही है बर्फ,
फसलें लील लेती हैं जमीन कों हीं
और उससे जुडा सीमान्त किसान
फंदे बाँध लेता है

तुम जानती हो
कि मांग को थाह में रखना कितना जरूरी है
चाहे वो प्यार की हीं मांग हो

मैं जानता हूँ
तुम्हारे लिए
प्यार किसी एक वर्षीय या
पंचवर्षीय योजना की तरह नहीं है
जिसमे सब कुछ एक निर्धारित समय के लिए होता है
और जैसा कि अभी चलन में है

बल्कि सतत चलायमान प्रक्रिया है
ये प्यार तुम्हारे लिए
और तुम चाहती हो
फसल थोड़ी हो पर कोंख बंजर न होने पाए


तभी तो मेरे कितने कम प्यार से
तुम कितना ज्यादा भर जाती हो

और मौसम पे जब भी छलक के गिरता है प्यार
वे जान जाते हैं
कि मैं तुम्हें कर रहा हूँ थोडा सा प्यार
आगे के लिए बचा कर रखते हुए अपना प्यार.