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Wednesday, April 14, 2010

सूखती नदियाँ और उदासी

दिन ऊबर-खाबड़ थे
और रास्ते में जो नदियाँ मिलती थीं
उनका पानी नीचे उतर गया होता था

बारिश पे चील-कौए मंडराते थे

ईश्वर को कोसती थी एक बूढी औरत

गीली हवा के इंतज़ार में
रातों का अँधेरा टूट जाता था
और रातें सुबह तक बिखरी हुई मिलती थीं
या रस्सी से लटकी हुईं

ख्वाब से कोई भी लिपटना नहीं चाहता था
नींद पे चोट के निशाँ पड़ जाते थे

सबको उदास होना पता था
और अनिवार्य रूप से
दिन के किसी भी वक़्त
उदास होना जरूरी हुआ करता था

दर्दों को जब कुरेदा जाता था
तो वहां से केवल रोजमर्रा की
कुछ चीजें निकलती थीं

आंसुओं के खर्चे बढ़ गए थे
और बांटने या समेटने से वे
किसी तरह कम नहीं होते थे

हम में से ज्यादातर ये भूल गए थे
दुःख कैसे कम किया जाता है
दरअसल एक विसिअस सर्कल बन गया था
आंसू निकलते थे इसलिए दुःख होता था
और दुःख होता था इसलिए आंसू निकलते थे

हाथों में लहरें पकड़ के
सागर के किनारे बैठना मना था
और यह किसी और सदी की बात थी
जब प्यार हुआ करता था

उनकी जरूरतें थीं
और उन्ही का नाम प्यार रख दिया गया था
जरूरतों में शरीर से लग कर सोना
और बच्चे पैदा करना प्रमुख थे

मैं जहाँ भी गया था
बकरियां बबूल खाती मिलती थीं
और पता लगता था
कि ये सब पानी न होने के वजह से था

पानी खो गया था,
आदमी के भीतर भी और बाहर भी

और सूखे कुँए में
रोज कोई न कोई कूद जाता था