(दरअसल वक्त एक जगह की तरह है जिसमे निर्वात जैसी कोई स्थिति नहीं होती वो जब खाली होती है तो खामोशी भर देती है जैसे जगह खाली नही रहती, हवा उसे भर देती है....)
[1]
बंद वक़्त के पीछे से
खुद को
उसके एक सुराख़ में डाल कर
जितना उसके नजर में आ सकता हूँ
आ रहा हूँ
भीतर कोई जगह खाली नहीं है!
वो आकर दरवाज खोलना चाहती है
पर वक़्त में इतना कुछ ठसा पड़ा है
कि आ नहीं पा रही
[2]
वो निकल गया था एक दिन
अपना पूरा सामान लेकर
और कुछ उसका भी
उसके वक्त में
बहुत देर रहने के बाद
उसके वक्त में दरारें पड़ गयीं थीं
मैं चाहता हूँ कि
उसकी दरारों में खामोशी की जगह आवाज भर दूं
[३]
उस परिस्थिति में
किसी और घटना के
अटने की गुंजाइश नहीं थी
समय जरा सा भी फैलता
तो फट सकता था
मैंने अपनी कुछेक चीजें निकल ली
और बाहर हो गया
7 comments:
बहुत गहरे भाव हैं इस रचना में तो ...
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
[1]
भीतर कोई जगह खाली नहीं है!
वो आकर दरवाज खोलना चाहती है
पर वक़्त में इतना कुछ ठसा पड़ा है
कि आ नहीं पा रही
waswikta ke bahut hi karib hai.
[2]
मैं चाहता हूँ कि
उसकी दरारों में खामोशी की जगह आवाज भर दूं
....khayal to achchaa hai .
[३]
मैंने अपनी कुछेक चीजें निकल ली
और बाहर हो गया
.........gaharee bhawanaye.
wah om ji, bahut sunder likh rahe ha
in, bhavpurna rachna.
मैंने अपनी कुछेक चीजें निकल ली
और बाहर हो गया
...बहुत सुन्दर.
गज़ब है गुरु !
bahut gahre bhavon ko abhivyakti di hai.
भीतर कोई जगह खाली नहीं है!
वो आकर दरवाज खोलना चाहती है
पर वक़्त में इतना कुछ ठसा पड़ा है
कि आ नहीं पा रही
बहुत सुन्दर.....!
मैं चाहता हूँ कि
उसकी दरारों में खामोशी की जगह आवाज भर दूं
लाजवाब अभिव्यक्ति.....!!
समय जरा सा भी फैलता
तो फट सकता था
मैंने अपनी कुछेक चीजें निकल ली
और बाहर हो गया
क्या बात है ......!!
ओम जी इस बार तो आपने कमाल ही कर दिया .....!!!
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