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Sunday, May 2, 2010

सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी

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इस घडी
जब खुश सा है यहाँ हर कोई
ठहाके, संगीत
फैशन, पार्टी
सिगरेट, शराब
भोग-विलास, उससे जुड़ा सुख
और न जाने कितनी और चीजें,
मैं देख रहा हूँ
इन सब की वजह से
किस तरह मेरा दुख उपेक्षित होकर
हाशिये पे चला गया है

सोंच रहा हूँ बहुत सारे लोग
जो हासिये पे धकेल दिए गए हैं
उनकी वजह भी तो
मुख्यधारा के लोगों की उपेक्षा हीं है

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रात गर्म थी हवा
लू के थपेड़े उड़ रहे थे हर तरफ
आंधी सा हाल था
इतनी धूल उड़ी कि इंसानियत ने बंद कर ली आँखें
अंधेरा कसा रहा चप्पे चप्पे पे.
काले आसमान से एक तारा भी नही निकला
जो टिम-टिमा दे जरा देर के लिए भी.

सुबह सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी.


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वे पहली बार
आए हैं , घर से इतनी दूर

पहली बार की है
ट्रेन से यात्रा
इतना अच्छा, पहली बार
लग रहा है उनको

जिन्दगी बीती यूँ हीं कठिनाइयों में
जुटाते रहे पाई-पाई
कुछ कर नहीं पाए जीने के जैसा

अभी थोड़ा बेफिक्र हुए हैं
खा-पी रहे हैं इच्छानुसार
फल-फूल, पी रहे हैं ज्यूस

कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.

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Sunday, April 4, 2010

तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद

मैं तुम्हें हमेशा याद रखना चाहता था
इस तरह कि
तुम्हारे बारे में सोंचते हुए
मैं चबा जाऊं अपने नाख़ून
और मुझे दर्द का एहसास तक न हो

मैं चाहता था
कि तुम मेरी जिन्दगी का
सबसे बड़ा दर्द बन कर रहो,
एक घाव बन कर
जिसमें से हमेशा मवाद निकले
ताकि तुम्हें बेवफा कहने की जरूरत न पड़े

पर मेरे साथ ऐसा हुआ है कि
चीजें हमेशा मेरे चाहने के विपरीत हुईं हैं
जैसे चली गयी थी तुम एक दिन मेरे चाहने को दरकिनार करके
वैसे हीं तुम भुला दी गयी हो
मेरे ना चाहने के बावजूद

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तुम्हें भुला दिया है
और यह अपने आप में काफी है
दिल को सुकून और
जिस्म को ठंढी सांस देने के लिए

उस जिस्म को,
दर्द ने चूस कर छोड़ दिया है जिसे

मगर मैं खुश हूँ कि
आज सुबह आखरी बार रोने के बाद
जब आईने ने पकड़ कर
मुझे अपने सामने खड़ा किया
तो वहां एक लचक देखी मैंने
जैसे चेहरे से एक भारी दुःख नीचे खाई में लुढ़क गया हो

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अब मुझे वे दिन याद नहीं आयेंगे
जिन दिनों में
मैं ठिठका सा पड़ा रहता था
उस इंतज़ार में
कि तुम मेरा स्पर्श उठा कर
जाने कब अपने बदन पे रख लोगी
और वे वहां ठहर जायेंगी
कभी न ख़त्म होने वाली फुरसत की तरह

वे पल भी अब नहीं होंगे
जब हर लम्हें को खींच कर
तुम समय से आगे इस तरह ले जाती थी
कि वे वक़्त के किसी निर्वात में ठहर जाते थे
और मैं अधिकतम गति से
झूल जाता था उन लम्हों को पकड़ के

अब वे दिन भी नहीं होंगे
जब मैं लिख दिया करता था
तुम्हारे बालों पे क्षणिकाएं
और तुम कहा करती थी
कि तुम्हारे बालों पे नहीं हो सकती क्षणिकाएं
इसलिए ये किसी दूसरे के बालों पे हैं

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ये सब अब कुछ नहीं होगा
ये सब होता गर तुम होती
भले ही कोसता तुम्हें, कहता बेवफा
और लिखता कवितायें
कि तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद.

Friday, November 13, 2009

तिनका

कुछ मैं नही छोड़ पाया था
कुछ
वो भी नही छोड़ पाई थी
और
इस तरह हम छूट गये थे
एक दूसरे से

जब धार पे ख़ड़ा हो
तो कितनी देर रुका रह सकता है
कोई बिना बहे,
और उस धार में तो हम तिनकों जैसे थे.

वो जो हम नही छोड़ पाए थे तब
वो सब भी छूट गये धीरे धीरे
वक़्त ने नयी – नयी धारें बनाई आगे फिर

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आदमी तो तिनका ही है
और धारें तो बदलती रहती हैं.