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Sunday, May 2, 2010

सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी

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इस घडी
जब खुश सा है यहाँ हर कोई
ठहाके, संगीत
फैशन, पार्टी
सिगरेट, शराब
भोग-विलास, उससे जुड़ा सुख
और न जाने कितनी और चीजें,
मैं देख रहा हूँ
इन सब की वजह से
किस तरह मेरा दुख उपेक्षित होकर
हाशिये पे चला गया है

सोंच रहा हूँ बहुत सारे लोग
जो हासिये पे धकेल दिए गए हैं
उनकी वजह भी तो
मुख्यधारा के लोगों की उपेक्षा हीं है

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रात गर्म थी हवा
लू के थपेड़े उड़ रहे थे हर तरफ
आंधी सा हाल था
इतनी धूल उड़ी कि इंसानियत ने बंद कर ली आँखें
अंधेरा कसा रहा चप्पे चप्पे पे.
काले आसमान से एक तारा भी नही निकला
जो टिम-टिमा दे जरा देर के लिए भी.

सुबह सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी.


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वे पहली बार
आए हैं , घर से इतनी दूर

पहली बार की है
ट्रेन से यात्रा
इतना अच्छा, पहली बार
लग रहा है उनको

जिन्दगी बीती यूँ हीं कठिनाइयों में
जुटाते रहे पाई-पाई
कुछ कर नहीं पाए जीने के जैसा

अभी थोड़ा बेफिक्र हुए हैं
खा-पी रहे हैं इच्छानुसार
फल-फूल, पी रहे हैं ज्यूस

कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.

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