अंतर्नाद
कविता...तेरे शहर में फिर आसरा ढूंढने निकला हूँ!
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Wednesday, June 30, 2010
***
जिनको भी दुःख हो
वे आयें
समझे मेरी छाती को
अपनी छाती
पीटे उसे
रोयें
और थक कर सो जाएँ
उठ कर भूल जाएँ
अपने काम में लग जाएँ
कि ये दुःख कभी कम होने वाला नहीं...
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