यह बिलकुल हीं रात है
और इसकी परिधि के भीतर
ठीक चाँद इतनी खाली जगह है
और बाकी सभी जगह अमावस बिछी हुई है
इस वक्त उस खाली जगह को महसूसना हीं
मेरी कविता है
और उसे लिख देना
तुम्हें पा लेने जैसा है
पर तुमने जाते हुए
वक्त को दो हिस्सों में बाँट दिया था
और वक्त का वो हिस्सा जिसमें कवितायेँ
लिखी जानी थी,
अतीत में गिर गया है
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Friday, October 8, 2010
Wednesday, September 29, 2010
और ज्यादा समय तुम्हारे पास
साँसें और ज्यादा तुम्हारे फेफड़ों में
रक्त से और लाल
धमनियां तुम्हारी
आग और पानी बराबर-बराबर
अकम्पित जीवन
और पाँव रखने से पहले
रौशनी गिरे
राह पर
मिटटी, बारिशें और खुश्बुएं
रहें सदा अंकुरित
तुम्हारे भीतर
और एक बड़ा कद
और ज्यादा समय हो
इस जन्म दिन के बाद
तुम्हारे पास.
रक्त से और लाल
धमनियां तुम्हारी
आग और पानी बराबर-बराबर
अकम्पित जीवन
और पाँव रखने से पहले
रौशनी गिरे
राह पर
मिटटी, बारिशें और खुश्बुएं
रहें सदा अंकुरित
तुम्हारे भीतर
और एक बड़ा कद
और ज्यादा समय हो
इस जन्म दिन के बाद
तुम्हारे पास.
Sunday, September 19, 2010
रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
लोग झिझके नहीं गले लगने में
और गले लगना इसलिए हो कि रोया जा सके
कंधें बचे रहें
रो कर थके हुओं के सोने के लिए
हँसना एक फालतू सामान हो
और हर इतवार हम निकाल दें इसे रद्दी में
ताकि रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
कवितायें तभी हों
जब भर जाएँ उनमें दुःख पूरी तरह
और कहानियों में भी
रुला देने की हद तक हो अवसाद
किसी भी तरह
बचा ली जाए रोने की परंपरा
ताकि जब पता चले कि
तुम्हें प्यार में इस्तेमाल किया जा चूका है
तो तुम रो सको,
पढ़ सको कवितायें
और कहानियों का सहारा हो.
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और गले लगना इसलिए हो कि रोया जा सके
कंधें बचे रहें
रो कर थके हुओं के सोने के लिए
हँसना एक फालतू सामान हो
और हर इतवार हम निकाल दें इसे रद्दी में
ताकि रोने के लिए हमेशा बची रहे जगह
कवितायें तभी हों
जब भर जाएँ उनमें दुःख पूरी तरह
और कहानियों में भी
रुला देने की हद तक हो अवसाद
किसी भी तरह
बचा ली जाए रोने की परंपरा
ताकि जब पता चले कि
तुम्हें प्यार में इस्तेमाल किया जा चूका है
तो तुम रो सको,
पढ़ सको कवितायें
और कहानियों का सहारा हो.
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Monday, September 13, 2010
हम चाहते हैं कि समंदर हो जाएँ !
हम पिघल गए थे
पर इतना नहीं कि समंदर हो सकें
हम चाहते थे कि समंदर हो जाएँ
और खोदते जाते थे
गहरा करते जाते थे अपना सीना
पर कवितायें तब भी
रह जा रही थीं अधूरी
हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में
दरअसल
हमें अपनी बूंद का बाँध
बार-बार तोडना था
ताकि हम भी हो सकें समंदर
और हमारे किनारे बस सकें दुखों के नगर...
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पर इतना नहीं कि समंदर हो सकें
हम चाहते थे कि समंदर हो जाएँ
और खोदते जाते थे
गहरा करते जाते थे अपना सीना
पर कवितायें तब भी
रह जा रही थीं अधूरी
हमारे चारो तरफ अभी भी बर्फ थी
जिन्हें पिघलना था
ताकि कवितायें आर-पार जा सकें और
हमें अभी भी सीखना था
नौ महीने पेट में रखने का सब्र
और सब्र की असुविधा भी
ताकि कवितायेँ पूरी जन्में
दरअसल
हमें अपनी बूंद का बाँध
बार-बार तोडना था
ताकि हम भी हो सकें समंदर
और हमारे किनारे बस सकें दुखों के नगर...
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Tuesday, September 7, 2010
सपनो से भरी एक कविता बाकी है!
यहाँ जीते हुए
हमेशा यह याद रखना जरूरी सा लगता है
कि यहाँ से वहां
वक़्त तीन दसमलव पांच घंटे आगे चलता है
और जब तक मैं सही वक़्त तक पहुंचूं
पीछे छूट जाने का भय काबिज हो जाता है
हालांकि यहाँ भी
जागने और सोने के लिए
सुबह और रात है
पर तुम्हारी अनुपस्थिति में
वक़्त का कोई न कोई कोना
नींद की पकड़ से
बाहर छूट जाता है
और मेरी सुबह वक़्त के
उसी कोने से शुरू होती है
इच्छा होती है कि
तुम्हें एक दफा गहरी नींद में
यहाँ के वक़्त में सोता देखूं
तो शायद नींद का वो कोना पकड़ में आ जाए।
नींद के अभाव में
सपनो से भरी एक कविता अभी बाकी है
हमेशा यह याद रखना जरूरी सा लगता है
कि यहाँ से वहां
वक़्त तीन दसमलव पांच घंटे आगे चलता है
और जब तक मैं सही वक़्त तक पहुंचूं
पीछे छूट जाने का भय काबिज हो जाता है
हालांकि यहाँ भी
जागने और सोने के लिए
सुबह और रात है
पर तुम्हारी अनुपस्थिति में
वक़्त का कोई न कोई कोना
नींद की पकड़ से
बाहर छूट जाता है
और मेरी सुबह वक़्त के
उसी कोने से शुरू होती है
इच्छा होती है कि
तुम्हें एक दफा गहरी नींद में
यहाँ के वक़्त में सोता देखूं
तो शायद नींद का वो कोना पकड़ में आ जाए।
नींद के अभाव में
सपनो से भरी एक कविता अभी बाकी है
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