लाख बुलाया,
कितनी आवाज़े दी
पर माना नही
छत से उतर कर जीने पे बैठ गया आखिरकार
कहता है
बिना चाँद लिए उतरेगा नही
कितना नादान है
ये दिल मेरा!
Friday, September 11, 2009
Wednesday, September 9, 2009
तेरे इश्क में
मैं हूँ अभी
इतना गतिमान
कि हूँ न्युटन के गति नियमों से परे
और इतना निरपेक्ष
कि आइंस्टीन है स्तब्ध.
मैं हूँ अभी
तेरे इश्क में.
इतना गतिमान
कि हूँ न्युटन के गति नियमों से परे
और इतना निरपेक्ष
कि आइंस्टीन है स्तब्ध.
मैं हूँ अभी
तेरे इश्क में.
Monday, September 7, 2009
सिर्फ तुम पर है !!!
अपनी लौ से लबरेज हथेली
रख दो आज
मेरी तनहा हथेली में
बरसों से परत-दर-परत
जमा हुआ मोम
पिघला कर
बहा दो
मेरी आँखों के कोरों से
ओस सी चिकनी
और पारदर्शी सुबह
उगा दो मेरी आँखों में
समझ लो
अपनी हथेली से
मेरी हथेली कों
मेरा होना अब
सिर्फ तुम पर है
रख दो आज
मेरी तनहा हथेली में
बरसों से परत-दर-परत
जमा हुआ मोम
पिघला कर
बहा दो
मेरी आँखों के कोरों से
ओस सी चिकनी
और पारदर्शी सुबह
उगा दो मेरी आँखों में
समझ लो
अपनी हथेली से
मेरी हथेली कों
मेरा होना अब
सिर्फ तुम पर है
Saturday, September 5, 2009
अभी-अभी उसके ख्वाब से लौटी हूँ !!
आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में
जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,
आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के
फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी
फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में
जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए
ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है
Thursday, September 3, 2009
कुछ लब्ज रह जाते हैं बे-नज्म भी !!!
कुछ लब्ज पसरे हुए हैं
जैसे मीलों चलकर आये हों कहीं से
आँखों में उनके
ढेर सारा नींद बिछा है
और पलकों पे सलवटें हैं
रात भर
इक नज्म क़ी मिट्टी कोडते रहे वो
रात भर
सांस फंसी रही उनकी मिट्टी में
पर ना कोई शक्ल बनी नज्म क़ी
और ना तलाश को
मिला कोई सुर्ख रंग
बस लम्हा-लम्हा खाक होती चली गयी रात.
उन्हें तो बस रंग जाना था,
सुर्ख रंग में
इक नज्म के,
और बह जाना था
उसके किनारे से लग कर
पर
हर बूँद को कहाँ मिलती है नदी
बह कर सागर तक पहुँचने के लिए
और न पिया के रंग में रंगी चुनर हीं
हर किसी को
कुछ लब्ज रह जाते हैं बे-नज्म भी !!!
जैसे मीलों चलकर आये हों कहीं से
आँखों में उनके
ढेर सारा नींद बिछा है
और पलकों पे सलवटें हैं
रात भर
इक नज्म क़ी मिट्टी कोडते रहे वो
रात भर
सांस फंसी रही उनकी मिट्टी में
पर ना कोई शक्ल बनी नज्म क़ी
और ना तलाश को
मिला कोई सुर्ख रंग
बस लम्हा-लम्हा खाक होती चली गयी रात.
उन्हें तो बस रंग जाना था,
सुर्ख रंग में
इक नज्म के,
और बह जाना था
उसके किनारे से लग कर
पर
हर बूँद को कहाँ मिलती है नदी
बह कर सागर तक पहुँचने के लिए
और न पिया के रंग में रंगी चुनर हीं
हर किसी को
कुछ लब्ज रह जाते हैं बे-नज्म भी !!!
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