एक लम्बे दुःख ने
थका दिया है मुझे
या फिर उबा दिया है शायद
सुबह उठ कर जो आ बैठा था
बालकनी में इस कुर्सी पर
तब से कितने गोल दागे बच्चों ने
सामने खेल के मैदान में
पर पसीना नहीं आया मुझे
दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है
लहू मांगती है अब
सुख का ताप, थोडा सा
और
जिस्म पसीना मांगता है
सुबह-सुबह आईने में
मेरा चेहरा भी मांगता है
एक मुनासिब सजावट
जहाँ चीजें करीने से लगी हों
और एक बदन
जो सारी उबासी निकाल चुका हो
मन के पोर भी
बजते हैं बेचैन होकर,
सुनाई देती है उनकी थकन
अपनी हीं हथेली से
दबाता रहता हूँ उन्हें
पर कई हिस्से छूट जाते हैं
तुम बताओ
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??
51 comments:
uff dil ki baichaini har alfaz se nikal rahi,
दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है
waah ye line bahut gazab ki hai.
दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है,
सच्ची बात और सच्ची भाव...
बधाई!!
ओम जी आपके भाव मुझे बहुत प्रेरणा देते है.
तुम बताओ
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ जाने क बाद
ओम जी बहुत ही भावुक रचना ....कई बातें ऐसी होती हैं जिनको सिर्फ शब्दों में ही बाँधा जा सकता है गम हल्का करने के लिए ....!!
बेहतरीन अभिव्यक्ति बहुत पसंद आई आपकी यह रचना
sheershak dekh kar hi laga tha ki kavita bhaavpoorn hogi aur...sach me bahut badhiya rachna .
दुःख ............लहू को ठंडा भी कर देता हैं ,सीमाओं से परे जाती ये थकान ,और कमबख्त ज़िस्म पसीना मांगता हैं ,ओम भाई प्रणाम! ..............ज़िन्दगी किस तरह से आपकी रचनाओं में शामिल हैं .............
bahut hi bhaavuk rachna......... ek ek alfaaz dil se nikal kar pen ki tip par aaa gaye hain........
सुन्दर है
--->
गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम
apni he hatheli se dabaata hoon....
waah kya baat hai...
तब से कितने गोल दागे बच्चों ने
सामने खेल के मैदान में
पर पसीना नहीं आया मुझे
एक मुनासिब सजावट
जहाँ चीजें करीने से लगी हों
और एक बदन
जो सारी उबासी निकाल चुका हो
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??
...वो बेदर्दी से सर काटे और में कहूँ उनसे....
हुजुर, आहिस्ता, आहिस्ता जनाब आहिस्ता... आहिस्ता.. !
बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्यक्त यह रचना आभार्
वाह !
हथेली से दबाना
और कुछ हिस्से छूट जाना.........
गज़ब !
गज़ब !
गज़ब !
मन के पोर भी
बजते हैं बेचैन होकर,
सुनाई देती है उनकी थकन
behad gahre aur khoobsoorat bhav.
बहुत ही भावपूर्ण रचना है बधाई स्वीकारें।
ओम जी,
भावनाओं से भरा एक अप्रतिम सृजन!!!
आपकी रचनाओं में संजीदगी ने मुझे हमेशा प्रभावित किया है, रचनायें बड़ी देर तक अपना असर बनाये रखती हैं।
ऐसा ही अच्छा लिखते रहिये।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??
pad ke ek dard sa uthha..ab to ahsaas nahi hota hai..dard hota to hai par kaha hota hai...
जिन्दगी को करीब से छूती रचना
आभार
Ye dard ka samandar itna gahra hai..kabhi thah nahee lag sakta..haina?
हर दिन एक नयी गहरी और दिल को छू लेने वाली अभिव्यक्ति ले कर आते हैं आप ये भावनायें भी कितना व्यथित कर देती हैं इन्सान को ---- कोई अन्त नहीं कोई किनारा नहीं --- शुभकामनायें
Aapki soch laajawaab kar deti hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है
sach hai,par angaare bhi bharta hai
Yakinan.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??
बेहद संवेदनशील कर दिया आपने तो. --- और फिर दु:ख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है. क़्या एहसास है.
dukh ...hamare tamaam bhavo ko badi khoobsoorati prdaan kar detaa he aour vakai jab esa hota he to ek behtreen rachna ka avtaran ho jaataa he, jesi aapki rachna../
bahut achhi aour sadhee hui rachna.
वाह! क्या लिखा है! जारी रहें.
---
आप हैं उल्टा तीर के लेखक/लेखिका? विजिट- http://ultateer.blogspot.com
मन के पोर भी
बजते हैं बेचैन होकर,
सुनाई देती है उनकी थकन
अपनी हीं हथेली से
दबाता रहता हूँ उन्हें
पर कई हिस्से छूट जाते हैं
सुन्दर अभिव्यक्ति
BAHUT KHOOB.
बहुत ही भावुक रचना ..बधाई.
Behtareen hai bhai. Badhaai.
mrmsparshi rachnaa hai
venus kesari
kuch na keh paaonga om ji...
shabdon se aapne jis tarah ka jaal; buna hai...
man us balcony main bath rah hai mano...
likhte wakt man ki stithi munfi rahi hogi,
par pathakoon ke liye iska asar door talak hoga...
kuch lines to baha le jaati hai....
"बालकनी में इस कुर्सी पर
तब से कितने गोल दागे बच्चों ने
सामने खेल के मैदान में
पर पसीना नहीं आया मुझे"
aur ye bhi ek sajiv line hai...
"सुबह-सुबह आईने में
मेरा चेहरा भी तलाश करता है
एक मुनासिब सजावट
जहाँ चीजें करीने से लगी हों
और एक बदन
जो सारी उबासी निकाल चुका हो"
lekhan ki utkrishta hetu badhai sweekarein....
तुम बताओ
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ जाने क बाद
wah !
BAHOOT HI LAJAWAAB OM JI .... 7 DIN CHUTTI BITANE KE BAAD AAJ AARAAM SE AAPKI KAVITAAON KA AANAND LE RAHA HUN .......
भावों की बेहतरीन अभिव्यक्ति मेहसूस करने को मिलती है, धन्यवाद!
वाह ओम भाई.... कहाँ से लाते हैं ऐसे ज़ज्बात....
बहुत ही भावुक !!
ओम भाई,
इधर थoडी व्यस्तता रही, विलंब से आया आपके ब्लॉग पर ! बेहतरीन भावाभिव्यक्ति ! बड़ी संजीदगी से ज़िन्दगी की कश-म-कश को चिन्हित करती है ये रचना आपकी ! बधाई मेरी देर से ही सही स्वीकारें !
अजीब इत्तिफाक है इन दिनों हर कोई दुःख पे लिख रहा है......क्या सबने दुखो के रजिस्टर खोल दिए है
बहूत अच्छी रचना. कृपया मेरे ब्लॉग पर पधारे.
हथेली से दबाना
और कुछ हिस्से छूट जाना.........
और फिर जन्म लेती है एक और बेचैनी. हाँ बिलकुल आपकी कविताओं में उभरते है ये सब.
लहू मांगती है अब
सुख का ताप, थोडा सा
और
जिस्म पसीना मांगता है
बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना है।
बधाई!
बहुत ही भावुक रचना ....बहुत पसंद आई आपकी यह रचना
एक शानदार...काव्य..इसको पढ़ तो बहुत पहले लिया था... लेकिन अफसोस प्रतिक्रिया से चूक गया था क्योंकि आफिस में कुछ साईट ब्लॉक है...इस लिए..
एक जैसा दुःख मेरा तुम्हारा ,
मैंने खोया चाँद, तुमने तारा ,
मैंने खोयी खुशी ,तुमने हँसी ,
फ़िर भी हम दोनों को जीना है,
अपने आंसुओ को अकेले पीना है ...
ओम साहब..पिछले कुछ वक्त से आपका ब्लाग देखना शुरु किया..तबसे आपकी कलम का प्रशंसक बन गया..एक अनुभूति को इतने वृहद कोणों से देख पाने की आपकी क्षमता अद्भुत है..आपकी लेखनी के लिये शुभकामनाएं!
आभार
अपूर्व
बहुत ही सुन्दर मनोभाव...... आभार.
मेरा चेहरा भी तलाश करता है
एक मुनासिब सजावट
जहाँ चीजें करीने से लगी हों...kaarigiri vaali baat hai ye to...badhiya
तुम बताओ
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??
जीवन के अनमोल पलों की सुहानी यादों को ऐसे टटोला है कि जानेवाला भी लौटकर दौडकर भागा चला आये। वाह!!!
excellent........yakinan kabil-e-tariif
wah , kya khubsurti hai is bhatkaav men.
khwaab bhatak kar aa jaate hain kyun aankhon men
koi ek pahunch pata hai ghar laakhon men
Post a Comment