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Saturday, November 6, 2010

चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है

आज दिवाली के दिन
तारों से भरी धरती के बीच चाँद सिर्फ ख्याल में है

आतिशबाजियों के शोर
ख्यालों में खलल डालते हैं
और चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है

धूप खोलना
और सुखाना रिश्तों पे गिर आयी सीलन
और खरोंच आ जाये तो करना कुछ मलहम जैसा
थी तुम्हारी आदत
कभी धूप और कभी बारिश के लिए
और कभी धूप में होती बारिश को महसूसने के लिए
चलते चले जाना धरती के छोर तक
मेरे साथ चलते हुए
अब ये सब सिर्फ ख्याल में हैं

धुप और बारिश के अभाव में
अब ख्याल भी पतझड़ होने लगे हैं
और जब मेरा पतझड़
मुझपे बडबडाने लगता है
और रात देर तक पत्तियों का गिराना नहीं रोकता
मैं पलट कर जबाब देने के बजाये
अपनी नंगी होती शाखें लेकर
निकल जाना पसंद करता हूँ
चुपचाप तुम्हारी कविताओं में

पर अब तुम्हारी कवितायें चलती चली जाती हैं
और धरती का वो छोर नहीं आता



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