Saturday, October 31, 2009

अब क्या शहर और क्या गाँव !!

शहर
या तो
अलग – अलग क़तारों में
ख़ड़ा है
बंटा हुआ,
या
फिर उपस्थित है
दौड़ता हुआ
भागदौड़ क़ी परिधि पे,
अपनी पूरी थकान के बाबजूद

कुछ शहर जाने जाते हैं नहीं सोने के लिए
और कुछ कतार में भी दौड़ने के लिए

शहर को मैने
कभी फुरसत में नही देखा
ना हीं कभी एकजुट.

बहुत बड़ी-बड़ी कतारें
उपस्थित हैं
बहुत छोटी-छोटी जगहों में
जगह के बीच से
जगह निकालते हुए

एक टूटते हुए और
दूसरे बनते हुए कतार के बीच के
अंतराल को आप छू नही सकते
और ना हीं कतार बदलने वाले को

जरा सा भी असावधानी
आपको बे-कतार कर सकती है
और फिर आप किसी भी कतार के शिकार हो सकते हैं

बिना कतार का आदमी
बड़ी मुश्किल से मिलता है
और अक्सर मुश्किल में मिलता है

Thursday, October 29, 2009

हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए !

लोग किनारे की रेत पे
जो अपने दर्द छोड़ देते है
वो समेटता रहता है
अपनी लहरें फैला-फैला कर
हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए

जब भी कोई उदास हो कर
आ जाता है उसके करीब
वो अपनी लहरें खोल देता है
और खींच कर भींच लेता है अपने विशाल आगोश में
ताकि जज्ब कर सके आदमी के भीतर का
तमाम उफान

कभी जब मैं रोना चाहता था
पर आंसू पास नहीं होते थे
तो उसने आँखों कों आंसू दिए थे
और घंटों तक
अपने किनारे का कन्धा दिया था

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...

और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!

Tuesday, October 27, 2009

कब आ रही हो !!!

जब भी चली जाती हो तुम मायके
मैं एक एक कर
याद करता हूँ
अपनी सारी पुरानी प्रेमिकाएं

निकालता हूँ
कवर से गिटार
और रात देर तक उसके तारों को
छूते हुए कोशिश करता हूँ
महसूसना उन पुरानी प्रेमिकाओं को

कभी पार्क की
फिसल पट्टी पे लेट कर
आधा चाँद देखते हुए
सोंचता हूँ अधूरे प्रेमों के बारे में
और 'रात को रोक लो' वाला गाना गाता हूँ

निकालता हूँ
अपनी पुरानी लिखी कवितायें
एक दो पढता हूँ
और फ़िर रख देता हूँ
उनमें गंध आ गई है वैसी जैसी
बहुत दिन से पेटी में पड़े
पुराने कपडों में हो जाती है

और ये सब कर के
जब थक जाता हूँ
और हो जाता हूँ उदास
बनाता हूँ
मग भर कड़क काली चाय
और तुम्हें याद करते हुए पीता हूँ

और अगली सुबह
तुम्हें फोन करके पूछता हूँ
कब आ रही हो !!!


Monday, October 26, 2009

बडा इंतज़ार रहता है

दिल से चले गये दर्दो का
जाने क्यो बडा इंतज़ार रहता है

और जो बच गये हैं बैठे हैं जाम लेके
होश इनको जरा ना-गवार रहता है

आजकल अखबार का समाचार पढते वक़्त
नजर बडा ही शर्मसार रहता है

बदन के रेशे रेशे पे जिंदा हर पल
तेरे बोसे का प्यार रहता है

समंदर ने छोड दिया आना साहिल पे
किनारे की रेत पे तपिश बेशुमार रहता है

दुनिया के दामन में साजिश बहुत है
जिंदगी पे मौत का खौफ हमेशा बरकरार रहता है

Friday, October 23, 2009

फूली नही समा रही है पृथ्वी !

आदमी मुस्कुराता है

नही हमेशा,
कभी-कभी हीं सही
पर अभी भी
जारी है आदमी का मुस्कुराना

आदमी हमेशा हँसता-मुस्कुराता रहे
मुस्कुराने के मौके तलाशे और तराशे
ऐसी मेरी चाहत है और प्रार्थना भी

मुझे फक्र है
हर मुस्कुराते हुए आदमी पर
जो इस सनातन दुःख के बीच
मुस्कराहट इन्सर्ट करने की हिम्मत रखता है

मेरी कल्पना में
अक्सर जीवित हो उठता है वो दृश्य
जिसमें छह अरब लोग
एक साथ मुस्कुरा रहे हैं

उस दृश्य में
धरती का आयतन
वर्तमान से कई गुणा ज्यादा है
दरअसल, फूली नही समा रही है पृथ्वी
उस दृश्य में

उस दृश्य में मुस्कुराते हुए
देख रही है वो मुझे
और मैं उसे.

Wednesday, October 21, 2009

तुमने कहा था इसलिए...

१)
चुप सी रहा करती है
एकदम निःशब्द आँखें हैं

लाख निचोड़ लो,
नहीं मिलता एक भी सुराग

बस बहती रहती है मुसलसल
चाहे कोई भी मौसम हो
ऐसे जैसे कोई खाली आसमान बरसता हो लगातार

कोई बताये उसे
कि नीचे खड़ा भींगता रहता है कोई उनमे

२)
इन दिनों
उग आया है एक पौधा
मेरे आँगन में
लाजवंती का

मैं उसकी तरफ देखने से बचता हूँ

वो कहा करती थी
मेरी आँखों का स्पर्श बहुत गहरा है

३)
भीतर का मौन
और बाहर का सन्नाटा
दोनों टूटे हैं एक साथ

चूल्हे पे चढ़े
आवाज का ढक्कन उड़ गया है

दरअसल कभी-कभी
बहुत शोर हो जाता है मुझसे

अक्सर तब,
जब याद आ जाती है
ज़माने की विसंगतियां
और हमारा सपना, बिखरा हुआ

Monday, October 19, 2009

उदास था कल वो नीम का पेड़ !

१)
कल तुम्हारे घर के करीब से गुजरा था
एक नजर डाली थी उस नीम के पेड़ पे भी
जो हिल कर दिया करता था गवाही हमारे प्यार की

बहुत उदास लगा वो मुझको

तुमने शायद वहां,उस पेड़ के नीचे दीये नही जलाये थे।

२)
कल रात बहुत आतिसबाजियाँ हुईं
मेरा मौन ढूंढता रहा
एक वक्फा उन आवाजों के दरम्यान

जहाँ वो तेरी फुलझडी रख सके।

३)
इस बार दीवाली पे
तारों के गम में बादल भी शरीक हुए बरस कर

हर बार की तरह इस बार भी
ठीक दिवाली की रात चांद कहीं छिप गया जाके ।

Sunday, October 18, 2009

इजहार

(कुछ कवितायें बार बार सच होती हैं...इसलिए एक बार और पेश कर रहा हूँ...क्यूंकि फ़िर से सामयिक हो गई है किसी के लिए ...साँसे चक्रवात से कम नही और दिल से जो भी लहू गुजर रहा है...निकल रहा है बाहर बिल्कुल गरम होकर...)

लब्ज सुन लिए गए थे

कायनात की सारी आवाजों ने
उन तीन लब्जों के लिए
सारी जगहें खाली कर दी थीं

होंठों पे
सदियों से जमा वजन
उतर गया था

उसके भीतर कोई नाच उठा था
जो नाचता हीं जा रहा था
लगातार...लगातार....

दिन भर दौड़ में लगे ख्वाबों का बिस्तर है नींद !

लकडियाँ जोड़ी
उपले लगाए
तीलियाँ फूंकी
पर आंच जली नही
उठता रहा धुंआ, केवल धुंआ !

हांडी में चढाई थी जो नींद
वो कच्ची हीं रह गई।

चाहिए थी एक पकी नींद
ख्वाबों के लिए,
दिन भर दौड़ में लगे ख्वाबों का बिस्तर है नींद
जो कभी-कभी यूँ हीं बिना सिलवटों के रह जाती है

जाने कहाँ से आकर ख्याल में कुत्ते रोते रहते हैं
और लाख लतियाने पे भागते नही

सुबह-सुबह चाय पीते हुए
उनींदे मन ये सोंच रहा हूँ
कि आख़िर कुत्ते भी क्या करें
उन्हें भी कहाँ वक्त मिलता है रोने के लिए

और चाय पीने के बाद देख रहा हूँ
कैसे दौड़ पड़े हैं ख्वाब
फ़िर उन कुत्तों को रोता छोड़ कर

Friday, October 16, 2009

तुम्हारे लौ भरे हाथ बहुत याद आतें हैं

१)
रात
अमावस की तरफ़ मुंह किए
जा रही थी
और हम खुश थे
कि दिवाली आ रही है !

२)
न तुमने बढ़ाई अपनी लौ
और न मैंने
अपनी बाती

दीया कैसे जलता आख़िर!

३)
बढ़ा दो अपनी लौ
कि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,

इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !

४)
एक ही लौ होगी हर कहीं
और एक ही ऊर्जा
देख लो चाहे कोई भी दीया हो
या हो कोई भी बाती

५)
तुम्हारे लौ भरे हाथ
बहुत याद आतें हैं
जब भी दिवाली आती है

Wednesday, October 14, 2009

पतझड़ का सिलसिला थमता नही !

चील से उडते हैं मौसम
जैसे झपट्टा मारने को हों

अलसायी पडी जिंदगी
सुखती रहती है टहनी पे,
जम्हाई लेती दुपहरी के रोशनदानो से
झुलसी हुई हवा का आना जाना लगा रहता है
दीवारे तपने लगती है अल्लसुबह से
भीतर ही भीतर
धाह मारती रहती है

भिंगोता हूँ, पानी छिडकता हूँ पर ताप थमती नही
जिंदगी सब्ज नही होती

शाखें बिना कोंपलो के डोलती रहती है.

वो अपने छाँव जो ले गयी है .

Tuesday, October 13, 2009

तब आखिरी बार उसकी पीठ देखी थी !

उधेड़ गयी वो सीवन
एक धागा था बांधे हुए
गिरहें खुल गयीं
और फ़िर उधड़ते चला गया धागा

रिश्ते का हिज्जे बदल गया
एहसासों का जायका भी,
उसके साथ साथ

बंद हो गयी सारी नसें आँसुओं वाली

ना संभाल कर रखने को छोड़ा
कोई निशान
ना यादों के लिए कोई लकीर,
जिसे पकड़ के कभी दुबारा लौटना हो सके

एक लम्हा था
जो पलटा तो
एक तरफ कुछ कागजात थे हमारे दस्तख़त वाले
और दूसरी तरफ
उसकी पीठ जा रही थी.

Sunday, October 11, 2009

अब मेरे सपनो को खोल कर मत देखो !

वो गयी
और अनजाने में ही
लेती गयी
अपनी आंखों से बाँध कर
मेरे सपने

जब कभी
अब वो
खोल कर देखती है उन्हे
रोती है

Saturday, October 10, 2009

इक्कीसवीं सदी में इस पोस्ट के लिए क्या शीर्षक हो सकता है !!!

१)
नींव में दबा दी गयी है
दुनिया की सत्तर प्रतिशत
कमजोर, कुपोषित और निशक्त आबादी

और बनाना चाह रहे हैं वे
तीस प्रतिशत लोगों के लिए
कुछ ऊंची मजबूत इमारतें

नादान !

२)
आज अरसे बाद
कैमरे में फ़िर है भूख

बमों से मारे गये
या बाढ़ से तबाह हुए लोग
चैनल की टी आर पी रेट पर
कुछ खास कमाल नही दिखा पा रहे थे

इक्कीसवीं सदी के एक विकासशील देश में
भूख एक मुद्दे की बात है

सरकार इस समाचार को, जिसमे कि भूख है
अपशकुन मानती है
खास कर इस चुनाव के समय में.

लतार मिल रही है
आलाकमान से कि
भूख को छिपा कर रखना भी नही आता
चुनाव क्या खाक जीतेंगे

सरकार की मजबूरी है
कि सरकार में कोई भी
दूसरे के भूख को
अपने पेट पे लेने को तैयार नही है
और मीडिया की मजबूरी है कि
एक नए बेकसी चाहिए हर रोज

हमारी क्या मजबूरी है!!!

३)
" रात होने पे
जब भोजन मांगने लगते हैं
और चिल्ल-पों मचाते हैं
तो उन्हें
पीट कर रुलाना पड़ता है

पहले वे रोते तो हैं
पर बाद में थक कर सो जाते हैं

हम दिन में एक बार खा सकते हैं
चावल नमक या रोटी नमक "

टेलीविजन के एक दृश्य में
कह रही थी एक औरत.

Friday, October 9, 2009

पूरा किया तुमने आकार, मेरी मिट्टी का !!



अपने नन्हे ख्वाबों की ऊंगली
देना मेरे हाथों में,
वे मेरे भी होंगे
सिर्फ़ तुम्हारे नही.

अपनी देह में
तुम्हे संजोकर,
हर्फ़ हर्फ़ जोड़ा है तेरा,
कतरा-कतरा बुना है
तेरी अस्थियों और मज्जों को
भरा है उनमे अपना लहू और अपनी साँसें

इसलिए कहती हूं ,वे मेरे भी होंगे
सिर्फ़ तुम्हारे नही

तुम्हारे उन ख्वाबों पर एक भी खरोंच
खुरच देगी मेरी नींद भी,
गिरेंगी टूटकर
तो किरचे मेरी आँखों में भी गिरेंगे

तुम्हारे आने की सदा जिस दिन सुनाई दी थी
उस दिन से
रंग-बिरंगी तितलियों ने
बहुत तरंगे बनाई मन के पानी में
और पूरा किया तुमने आकार,
मेरी मिट्टी का,
दिया सुकून तुमारी कोंपलों ने उगकर

तुम्हारे आने की सदा जिस दिन सुनाई दी थी
उस दिन से हीं
वे हमारे ख्वाब हैं
मेरे या तुम्हारे नही

हम साथ-साथ टहला करेंगे
सुबह-सुबह नंगे पाँव ठंडी धूप पर
और तुम अपने ख्वाब मेरी आँखों में देना.
तेरा हर्फ़-हर्फ़ जोड़ा है मैंने
तेरे ख्वाब भी जोड़ दूँगी शब्द-शब्द
मैं तेरी माँ हूँ मेरी बेटी, मेरी चेरिल!

Wednesday, October 7, 2009

हालांकि मैने छोड़ दिए हैं देखने वे ख्वाब !!!

हालांकि, मैने छोड़ दिए हैं
देखने वे ख्वाब
और जिक्र करना भी...

पर, मेरे कंधे पर
अभी भी आ झुकता है चेहरा तेरा
और मेरे सीने को
जब तब घेर लेती हैं बाजुएं तुम्हारी
ख़ास कर तब, जब हम
टहलते हुए निकल जाते हैं साहिल तकaa
और बैठ जाते हैं रेत पर

मेरी कनपटियो कों रगड़ती हुई
जब उलझ जाती हैं तुम्हारी अलाव सी साँसे
मेरी बाली से,
आँखें गर्म मिलती हैं सुबह
और यूँ लगता है
कि नींद किसी उबलते ख्वाब से गुजरी होगी

अभी भी खुल जाती हैं तुम्हारी सलवटें
जहाँ पनाह भरा है
और वो मौन राते, जहाँ लब्जों के सिवाए
सब कुछ होता है.

अभी भी कभी-कभी जगता हूँ जब
तो पाता हूँ सुबह अपने होंठों पे
तेरे होंठों के जायके कों चिपके हुए

हालांकि मैने छोड़ दिए हैं देखने वे ख्वाब
फिर भी...
जिक्र तो हो ही जाता है !!!

Tuesday, October 6, 2009

यादें

कई यादें हैं
एक से लगती हुई एक
पीछे, बहुत दूर तक फैली हुई
जहाँ तक नजर जाती है.
जैसे पहाड़ियाँ होती हैं
एक से एक लगी हुई, फैली दूर तक
जहाँ पनाह पाता है सूरज शाम को

कुछ यादें,
जो बसी हैं
बिल्कुल तराई में
कभी जब हो जाती है मूसलाधार बारिश,
तो उनका बहाव
बदन के कगारों को तोड़ते हुए
पहुँच जाता है पलकों तक
और बहने लगता है धार धार


बहुत बार डाली है मिट्टी
बहुत बार ढँक दिया है
मोटी परतों से,
याद के
उन गहरे निशानों को
पर कोई भी,
किसी संगीत का टुकड़ा, कविता की कोई पंक्ति,
या ऐसे ही
बाजार में टहलता हुआ कोई लम्हा,
तोड़ कर
चला जाता है
उन बांधों को
और पानी, फिर बाहर आने लगता है

मैं कहाँ से लाऊँ
अब इतनी मिट्टी
जो रोक सके उन यादों का बहाव
जो बहा ले जाती है
बार- बार मुझे.

Monday, October 5, 2009

निष्ठुर

भूख थे वहाँ कतार में खड़े
और
पेट उनके, आग में पक रहे थे

चेहरे पहले लार लार हुए
फिर सूख कर लटक गये
इंतेज़ार में,
जीभ पपड़ीदार हुए फिर
आस में भोजन के
मगर शर्म नही आयी उसे.

वो भीतर
आसन पे विराजमान
अपने
दप-दप करते चेहरे के साथ
मजे से
चढ़ावे खाता रहा.

Thursday, October 1, 2009

मुद्दत तलक वो मुझे फूंकती थी !

किसी ने उसे कभी दिया था जला
पीने से पहले वो मुझे फूंकती थी

बादल को मैंने कहा था कभी
कि बूँदें तुझे एक दिन छोड़ देंगी

मुहब्बत की ताजी नजर से गिरी हो
कायनात को तुम डुबो के रहोगी

कड़ी धूप में जिंदगी तप रही है
मैंने तेरे सारे छाँव खो दिए हैं

छोड़ दिया उसने जब ख्वाबों में आना
मैंने भी छोड़ दिए ख्वाब सजाना

सब कुछ हो जब बिलकुल हीं सही
कोई न कोई कांच टूट जाता वहीँ