Monday, November 30, 2020

यह उनकी कामयाबी का वक्त है!

वे जान गए थे 
कि सही गलत कुछ नहीं होता
असल बात उसे साबित करना होता है 

और इसी क्रम में 
वे यह भी जानते थे 
कि सही को गलत साबित करने और गलत को सही साबित करने के तरीके होते हैं  जिन्हें सीखना होता है

उन्होंने इतिहास से सीखा 
कि इतिहास कैसे बनाया और बदला जाता है 
उन्होंने बाजार से सीखा भावनाओं के  इस्तेमाल से चीजों को कैसे अच्छे से बेचा जा सकता है 
उन्होंने अनुसंधान से सीखा
तथ्यों को उलटने पलटने की संभावना के बारे में
और  मानविकी विज्ञान से कि कैसे दृष्टिकोण से खेला जा सकता है

उन्होंने
पंचतंत्र की ब्राह्मण, बकरी और तीन ठग वाली कहानी को ठीक तरह से पढ़ लिया था थे और उन्हें पता चल गया था बार-बार दोहराने के विधा के बारे में

वे इस बात को भलीभांति समझ गए थे कि अगर गांधी कोई बात बोलेंगे तो लोग उसे सच ही मानेंगे
और फिर उन्होंने झूठ को बोलने के लिए  गांधी तैयार किए 
और जो तैयार नहीं हुए उन्हें झूठा साबित कर दिया और कहा कि वे दुर्भावना से प्रेरित हैं

अब वही सच है जो वह बोलते हैं कि सच है
झूठ भी वही जिसे वो झूठ बोलते हैं

यह उनकी कामयाबी का वक्त है!

Saturday, November 28, 2020

सामने वाले खुद से लड़ते हुए

खुद से लड़े हो कभी, कभी खुद पर वार किया है
खुद से जीते हो कभी खुद को हराकर
अपना लहू कैसा है मालूम है क्या तुमको
चीर कर देखा है क्या खुद को कभी?

उन्हें कमजोर मत समझो जो शांत दिखाई देते हैं 
कभी यह भी मत मान लेना 
कि जो शांत है वह कम लड़ाका होगा
कि जो शांत है उसे कभी भी हराया जा सकता है

ऐसे कुछ लोगों को मैं जानता हूं 
वे अक्सर लड़ रहे होते हैं अपने भीतर कोई लड़ाई
और लहू बस खत्म होने वाला होता है
वहां बोल कर लहू को व्यर्थ बर्बाद करने की गुंजाइश नहीं होती

भीतर की खुद से लड़ाई को बाहर के शोरगुल से बचाना जरूरी होता है
जीतने के लिए करनी पड़ती है सतत लड़ाई
इस विचार को कि खुद से लड़ना व्यर्थ है पटकनी देनी पड़ती है बार-बार
उसके लिए
गहरे उतर कर बनाई जाती है रणनीति युद्ध की
नहीं तो सामने वाले खुद को सब पता चल जाता है

खुद से लड़ने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए होती है
कुछ मत बोलो, चुप रहो 
जब तक कि तुम नहीं
कूद पड़ते हो अपनी खुद की लड़ाई में.
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Thursday, November 26, 2020

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

Inspired by poem of Vinod Kumar Shukla ji (link given below)

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
उस व्यक्ति को जानने वाले सभी लोग अभी भी चले जा रहे थे
उसके लिए कोई नहीं रुका 
और ना ही उसके पास गया
कि वह उसका हाथ पकड़कर खड़ा हो चले

काफी देर बाद किसी तरह
वह खुद खड़ा हुआ और जाने लगा
चलते चलते उसने देखा 
एक और व्यक्ति को हताशा में बैठे हुए
वह उसके पास जाकर बैठ गया
उसे वह बिल्कुल नहीं जानता था

थोड़ी देर बाद 
दोनों साथ उठे और साथ चले

 वे अब तक हताशा को जान चुके थे

और हताशा में हाथ थामने की 
जरूरत को जान चुका थे
साथ चलने की अहमियत को जान चुके थे
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विनोद कुमार शुक्ल जी की यह छोटी सी कविता कितनी बड़ी है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.