Monday, April 26, 2010

दिल भात की पतीली का ढक्कन हो गया है

मैं जानती हूँ
तुमने देख ली होगी
मेरे होंठों पे वो कांपती हुई कशिश
और उनपे बार-बार जीभ फेर कर
भिंगाने की मेरी विवशता
और भांप ली होगी वो कमजोरी भी
जिसकी वजह से कोई
किसी की बांहों में निढाल हो जाता है

उस कुछ देर की मुलाक़ात में
अब बताऊँ भी तो
सदा गतिमान होने का दंभ भरने वाला
ये वक़्त क्या मान लेगा
कि वो ठहर गया था

वो धौंकनी सी जलती हुई मेरी सांस थी
जिसपे तुमने अपने पसीने वाले हाथ
रख दिए थे
और कैसे छनाके की आवाज हुई थी
मेरे रोम में
जैसे जलते कोयले पे

किसी ने पानी उड़ेल दिया हो

खुदा जानता है
कि वो दिन का वक़्त था
नहीं तो चाँद के सारे दाग धुल जाने थे

तुम तो चले आये थे,
मुझे तो याद भी नहीं
क्या वादे किये तुमने अपनी सीली आँखों से
मेरे लिए तो
वो नमी हीं काफी थी

थपकियाँ दे-दे कर सुलाती रहती हूँ
धडकनों को तब से मैं,
दिल तेज आंच पे चढ़ी
भात की पतीली का ढक्कन हो गया है

Thursday, April 22, 2010

लडकियां चोटी बांधना भूलती जाती थीं

मेरे अन्दर एक डार्क जोन बन गया था
वहां पानी नहीं पहुँचता था
और मुझे पसीझने के लिए भी
पानी दूर से लाना पड़ता था

नदियाँ एक थीं
पर उनका पानी बंटा हुआ था
पानी को बिना महसूस किये नहा लिए जाना
आम बात थी

आज की रात आप एक औरत हैं
ऐसा उसे किसी ने न तो कहा था
और न हीं महसूसा था

वो अपने चुम्बनों को
होठों से नहीं उतार पायी थी कभी
वो अकेली कमाऊ लड़की थी उस घर के लिए

दहेज़ विरोधी कानून उनंचास साल पहले बन गया था
पर बहुत सारे लड़कियों की शादी अभी भी नहीं होती थी
और बहुत जन्म भी नहीं ले पाती थी

बच्चे सुबह से उठ कर खेलने लगते थे
या काम करने लगते थे
आम जनों में यह बात फ़ैल गयी थी
कि पढ़-लिख कर आदमी बेकार हो जाता है

स्कूली युनिफोर्म पहने बच्चे
ढाबों पे चाय पिलाते थे
या साईकिल की दुकानों पे
पंक्चर ठीक करते थे

या फिर वे ऐसी जगहों पे भेंड चराते हुए देखे जाते थे
जहाँ मुश्किल से कोई घास होती थी

स्कूल का मास्टर कभी -कभी आता था
उसके दारू की दूकान बहुत चलती थी

दूध वाले, सब्जी वाले और परचून की दूकान वाले सभी को
तकनीकों का बहुत अच्छा ज्ञान था
और वे उसका भरपूर इस्तेमाल भी करते थे
कोई घोंड़े की लीद से धनिया बनाता था
तो कोई हीपोलीन से पनीर

कुछ लोग जिन्दगी के इस पार रह जाते थे
कुछ उस पार
सरकार पुल नहीं बना पाती थी

सरकार को जब भ्रष्टाचार करना होता था
तो वो विकास की परियोजनाएं लाती थीं

लडकियां चोटी बांधना भूलती जाती थीं
चोटी बाँधने वाली लडकियां अब प्यार नहीं की जाती थीं

देह से ऊपर गया प्यार
और पैसे से ऊपर गयी मानवता
दोनों हीं उनके ज्ञान में नहीं था
या वे इसे मूर्खतापूर्ण मानते थे

मनु शर्मा को उम्रकैद की सजा मिल जाती थी
पर लोगों का
कानून से भरोसा उठा हुआ हीं रहता था

वे जानते थे कि एक दिन सब मारे जायेंगे
पर वे अंतिम व्यक्ति होना चाहते थे
मरने के मामले में ...

Sunday, April 18, 2010

बढ़ते तापमान में गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब

इसमें कोई अतिरंजन या रोमांटिसिज्म नहीं है
जब मैं कह रहा हूँ
कि आजकल रोज जुड़ रहा है थोड़ा-थोड़ा प्यार
हमारे बीच
पहले से जमा होते प्यार में

रोज बढ़ रहा है प्यार
रोज खिल रहे हैं
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब हमारे बीच

बढ़ते प्यार के साथ
यह एक अलग सा अनुभव है मेरे लिए
जिसमें कुछ सपने रोज हो रहे हैं पूरे
और बन रहें हैं रोज कुछ नए

उगने से पकने तक की
प्रक्रिया पूरी करके
बहुत खुश हो रहे हैं सपने
खुश हो रहे हैं
हमारे बीच के
गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब.

यहाँ तक तो सब खुशनुमा है
मगर इसके उलट दूसरी तरफ
चढ़ रहा है पारा
झुलस रहे हैं गुलदाउदी, गेंदा और गुलाब
जल रहे हैं सपने
और तापमान का तैश बढ़ता हीं जा रहा है

तापमान का बढ़ना
प्यार के बढ़ने जैसा नहीं होता

बल्कि उसके विपरीत
बढ़ा देता है पृथ्वी पे पहले से बेकाबू हुईं असमानताएं
पिघला देता है ध्रुवों का भविष्य
खेतों में मिटटी से खेलने वाले बच्चों को
ठेल देता है कट्टे* की फैक्ट्रियों में

हम कब तक सोते रहेंगे वातानुकूलित कमरों में
काटते रहेंगे पेंड
बर्बाद करेंगे पानी
बंजर करते रहेंगे खेत
कब तक देते रहेंगे चढ़ते पारे का साथ
और बढाते रहेंगे कट्टों की फैक्ट्रियां

*कट्टा = देशी पिस्तौल
[यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित/पुरस्कृत है. आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं. पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत किया है कुछ परिवर्तनों के साथ . ]


Wednesday, April 14, 2010

सूखती नदियाँ और उदासी

दिन ऊबर-खाबड़ थे
और रास्ते में जो नदियाँ मिलती थीं
उनका पानी नीचे उतर गया होता था

बारिश पे चील-कौए मंडराते थे

ईश्वर को कोसती थी एक बूढी औरत

गीली हवा के इंतज़ार में
रातों का अँधेरा टूट जाता था
और रातें सुबह तक बिखरी हुई मिलती थीं
या रस्सी से लटकी हुईं

ख्वाब से कोई भी लिपटना नहीं चाहता था
नींद पे चोट के निशाँ पड़ जाते थे

सबको उदास होना पता था
और अनिवार्य रूप से
दिन के किसी भी वक़्त
उदास होना जरूरी हुआ करता था

दर्दों को जब कुरेदा जाता था
तो वहां से केवल रोजमर्रा की
कुछ चीजें निकलती थीं

आंसुओं के खर्चे बढ़ गए थे
और बांटने या समेटने से वे
किसी तरह कम नहीं होते थे

हम में से ज्यादातर ये भूल गए थे
दुःख कैसे कम किया जाता है
दरअसल एक विसिअस सर्कल बन गया था
आंसू निकलते थे इसलिए दुःख होता था
और दुःख होता था इसलिए आंसू निकलते थे

हाथों में लहरें पकड़ के
सागर के किनारे बैठना मना था
और यह किसी और सदी की बात थी
जब प्यार हुआ करता था

उनकी जरूरतें थीं
और उन्ही का नाम प्यार रख दिया गया था
जरूरतों में शरीर से लग कर सोना
और बच्चे पैदा करना प्रमुख थे

मैं जहाँ भी गया था
बकरियां बबूल खाती मिलती थीं
और पता लगता था
कि ये सब पानी न होने के वजह से था

पानी खो गया था,
आदमी के भीतर भी और बाहर भी

और सूखे कुँए में
रोज कोई न कोई कूद जाता था

Thursday, April 8, 2010

जरूरतें, विश्वास और सपना


जब तुम घोंप आये
उसकी पीठ में छुरा
मैंने देखा
उसके खून में पानी बहुत था

जिन मामूली जरूरतों को लेकर
तुम घोंप आये छुरा
उन्ही जरूरतों ने
कर दिया था उसका खून पानी

**
तुम बार-बार खोओगे
विश्वास
कहीं सुरक्षित रख के

वे इधर-उधर हो जाते हैं
रोजमर्रा की
कुछेक जरूरी चीजों के हेर-फेर में

***
बहुत तेजी से
बदल रही हैं कुछ जरूरतें
सपनो में

जैसे घर एक जरूरत था पहले
पर अब एक सपना है

****
वक्त भाग कर
जल्दी-जल्दी दिन गुजारता है
जब उसे
इक रात की जरूरत होती है

और रात
नींद की जरूरत में
वक़्त को सो कर गुजार देती है
*****

जरूरतें, विश्वास और सपना पर कुछ और प्रतिक्रियाएं


ये कुछ और प्रतिक्रियाएं हैं इस रचना पे, जिन्हें मैं खोना नहीं चाहता था..

Sunday, April 4, 2010

तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद

मैं तुम्हें हमेशा याद रखना चाहता था
इस तरह कि
तुम्हारे बारे में सोंचते हुए
मैं चबा जाऊं अपने नाख़ून
और मुझे दर्द का एहसास तक न हो

मैं चाहता था
कि तुम मेरी जिन्दगी का
सबसे बड़ा दर्द बन कर रहो,
एक घाव बन कर
जिसमें से हमेशा मवाद निकले
ताकि तुम्हें बेवफा कहने की जरूरत न पड़े

पर मेरे साथ ऐसा हुआ है कि
चीजें हमेशा मेरे चाहने के विपरीत हुईं हैं
जैसे चली गयी थी तुम एक दिन मेरे चाहने को दरकिनार करके
वैसे हीं तुम भुला दी गयी हो
मेरे ना चाहने के बावजूद

******
तुम्हें भुला दिया है
और यह अपने आप में काफी है
दिल को सुकून और
जिस्म को ठंढी सांस देने के लिए

उस जिस्म को,
दर्द ने चूस कर छोड़ दिया है जिसे

मगर मैं खुश हूँ कि
आज सुबह आखरी बार रोने के बाद
जब आईने ने पकड़ कर
मुझे अपने सामने खड़ा किया
तो वहां एक लचक देखी मैंने
जैसे चेहरे से एक भारी दुःख नीचे खाई में लुढ़क गया हो

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अब मुझे वे दिन याद नहीं आयेंगे
जिन दिनों में
मैं ठिठका सा पड़ा रहता था
उस इंतज़ार में
कि तुम मेरा स्पर्श उठा कर
जाने कब अपने बदन पे रख लोगी
और वे वहां ठहर जायेंगी
कभी न ख़त्म होने वाली फुरसत की तरह

वे पल भी अब नहीं होंगे
जब हर लम्हें को खींच कर
तुम समय से आगे इस तरह ले जाती थी
कि वे वक़्त के किसी निर्वात में ठहर जाते थे
और मैं अधिकतम गति से
झूल जाता था उन लम्हों को पकड़ के

अब वे दिन भी नहीं होंगे
जब मैं लिख दिया करता था
तुम्हारे बालों पे क्षणिकाएं
और तुम कहा करती थी
कि तुम्हारे बालों पे नहीं हो सकती क्षणिकाएं
इसलिए ये किसी दूसरे के बालों पे हैं

******
ये सब अब कुछ नहीं होगा
ये सब होता गर तुम होती
भले ही कोसता तुम्हें, कहता बेवफा
और लिखता कवितायें
कि तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद.