Inspired by poem of Vinod Kumar Shukla ji (link given below)
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
उस व्यक्ति को जानने वाले सभी लोग अभी भी चले जा रहे थे
उसके लिए कोई नहीं रुका
और ना ही उसके पास गया
कि वह उसका हाथ पकड़कर खड़ा हो चले
काफी देर बाद किसी तरह
वह खुद खड़ा हुआ और जाने लगा
चलते चलते उसने देखा
एक और व्यक्ति को हताशा में बैठे हुए
वह उसके पास जाकर बैठ गया
उसे वह बिल्कुल नहीं जानता था
थोड़ी देर बाद
दोनों साथ उठे और साथ चले
वे अब तक हताशा को जान चुके थे
और हताशा में हाथ थामने की
जरूरत को जान चुका थे
साथ चलने की अहमियत को जान चुके थे
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विनोद कुमार शुक्ल जी की यह छोटी सी कविता कितनी बड़ी है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.
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