Saturday, November 6, 2010

चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है

आज दिवाली के दिन
तारों से भरी धरती के बीच चाँद सिर्फ ख्याल में है

आतिशबाजियों के शोर
ख्यालों में खलल डालते हैं
और चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है

धूप खोलना
और सुखाना रिश्तों पे गिर आयी सीलन
और खरोंच आ जाये तो करना कुछ मलहम जैसा
थी तुम्हारी आदत
कभी धूप और कभी बारिश के लिए
और कभी धूप में होती बारिश को महसूसने के लिए
चलते चले जाना धरती के छोर तक
मेरे साथ चलते हुए
अब ये सब सिर्फ ख्याल में हैं

धुप और बारिश के अभाव में
अब ख्याल भी पतझड़ होने लगे हैं
और जब मेरा पतझड़
मुझपे बडबडाने लगता है
और रात देर तक पत्तियों का गिराना नहीं रोकता
मैं पलट कर जबाब देने के बजाये
अपनी नंगी होती शाखें लेकर
निकल जाना पसंद करता हूँ
चुपचाप तुम्हारी कविताओं में

पर अब तुम्हारी कवितायें चलती चली जाती हैं
और धरती का वो छोर नहीं आता



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Tuesday, November 2, 2010

जहाँ प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं

अभी कुछ देर पहले हीं
मैं जलती आँखों के साथ
नींद की एक लोकल ट्रेन में चढ़ा हूँ
और थोड़ी देर बाद हीं

मेरी नींद को
एक सपने पे उतर जाना है

जहां मेरी नींद अक्सर उतरती है
उस सपने से सटी एक जगह है
जहाँ मुझे अपना आशियाना बनाना था
जिसे मैं कभी प्यार के
और कभी होम लोन के अभाव में
अभी तक नहीं बना पाया
और मालुम नहीं कब तक ऐसा रहेगा

दरअसल
ये शहर कभी एक दलदल है
जहाँ भारी मात्रा में
प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं
और जहाँ घर की नींव नहीं बन पाती
और कभी एक बाजार है
जहाँ आदमी की धारिता आंकने की प्रक्रिया
लगातार चलती रहती है
ताकि उसे कर्ज दिए जा सकें

इस शहर का दिया हुआ एक डर है
जो मुझमें खुलेआम घूमता है
वो लौट कर जाने के लिए एक घर के ना होने का डर है
और कभी लौट कर न जा पाने का डर है
खुलेआम घुमते हुए यह डर मुझे कभी भी पकड़ लेता है
और लगभग हर रात
मेरी नींद डर कर उस सपने पे उतर जाती है
जिससे सटी वो जगह है


पर इससे भी बड़ा एक और डर है
कि किसी रात जब मैं
नींद की लोकल ट्रेन से जब सपने पे उतरने को होऊं तो
वहां कोई छिन्न-भिन्न पड़ा हो
और उसके बाद मुझे मालुम नहीं
कि मेरी नींद कहाँ जाया करेगी

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