अभी कुछ देर पहले हीं
मैं जलती आँखों के साथ
नींद की एक लोकल ट्रेन में चढ़ा हूँ
और थोड़ी देर बाद हीं
मेरी नींद को
एक सपने पे उतर जाना है
जहां मेरी नींद अक्सर उतरती है
उस सपने से सटी एक जगह है
जहाँ मुझे अपना आशियाना बनाना था
जिसे मैं कभी प्यार के
और कभी होम लोन के अभाव में
अभी तक नहीं बना पाया
और मालुम नहीं कब तक ऐसा रहेगा
दरअसल
ये शहर कभी एक दलदल है
जहाँ भारी मात्रा में
प्यार और पोलीथिन एक साथ संड़ते हैं
और जहाँ घर की नींव नहीं बन पाती
और कभी एक बाजार है
जहाँ आदमी की धारिता आंकने की प्रक्रिया
लगातार चलती रहती है
ताकि उसे कर्ज दिए जा सकें
इस शहर का दिया हुआ एक डर है
जो मुझमें खुलेआम घूमता है
वो लौट कर जाने के लिए एक घर के ना होने का डर है
और कभी लौट कर न जा पाने का डर है
खुलेआम घुमते हुए यह डर मुझे कभी भी पकड़ लेता है
और लगभग हर रात
मेरी नींद डर कर उस सपने पे उतर जाती है
जिससे सटी वो जगह है
पर इससे भी बड़ा एक और डर है
कि किसी रात जब मैं
नींद की लोकल ट्रेन से जब सपने पे उतरने को होऊं तो
वहां कोई छिन्न-भिन्न पड़ा हो
और उसके बाद मुझे मालुम नहीं
कि मेरी नींद कहाँ जाया करेगी
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21 comments:
आप कविता के माध्यम से इतने गहरे जिंदगी के आयामों पर उतर जाते हैं कि पाठक आश्चर्य से ठगा सा खड़ा रह जाता है ...
स्तब्ध हूँ …………कहाँ से कहाँ ले जाते हैं और सोचने को मजबूर कर देते हैं……………बेहद गहन अभिव्यक्ति।
ओम भाई, आपकी कल्पना, आपके बिम्ब आपकी व्यंजना सब कुछ अद्भुत होती है।
गहन अर्थों वाली एक अनुपम रचना।...बधाई।
kitne gehre tak choo gaye honge bhaav aur drashya tab bani hgi ye rachnaa
badhaai
आपकी रचना पर कुछ कहते भी नहीं बनता
और कहना भी बहुत कुछ रहता है
और मालूम नहीं कब तक ऐसा रहेगा...
और मेरी नींद कहाँ जाया करेगी...
और मालूम नहीं कब तक ऐसा रहेगा...
और मेरी नींद कहाँ जाया करेगी...
बहुत ही भावमय प्रस्तुति ।
7.5/10
उत्कृष्ट लेखन / जबरदस्त कविता
आपकी यह कविता अकेले पाठक को बहुत अकेला छोड़ जाती है. संज्ञा-शुन्य सी स्थिति बन जाती है. यह कविता बहुत विस्तृत व्याख्या करा सकती है.
आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूँ , कमेन्ट के लिए शब्दों की कमी से जूझ रहा हूँ , बस यही कहना था की "जहा ना पहुचे रवि वहाँ पहुचे कवि" . उत्कृष्ट रचना
.
उम्दा रचना -बधाई।
.
Uf! Dil me ek tees-see uth gayee....behad gahre bhaav hain...raungate khade kar diye!
बेहद उम्दा रचना...
आपकी कविता के बिम्ब अद्भुत होते हैं. सच में हमलोग तो कुछ कह ही नहीं सकते.
पर एक जगह कुछ अटपटा लग रहा है--
"जिसे मैंने कभी प्यार के
और कभी होम लोन के अभाव में
अभी तक नहीं बना पाया"
यहाँ शायद 'मैंने' के स्थान पर 'मैं' होना चाहिए था.
और दोनों ही मिट्टी में नहीं मिल पाते हैं, यहाँ की मिट्टी अब ऐसी नहीं है।
मुक्ति जी, धन्यवाद...
गलती सुधार दी गयी है.
कॄपया "सटे एक जगह" को भी "सटी एक जगह " कर लें....
आवाक हूँ एक बार फिर.
.......जबरदस्त कविता
आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं ...
देखा था उसे
जब पहली बार
सिर्फ पैरो के जुतो तक
आंखो के गहराई मे उतरने की
हिम्मत साथ न थी
सबकुछ जान गयी थी
उसके बारे मे
जितना कुछ अनकहा था
उतना ही आज भी जानती थी
नैसर्गिक लम्हे सिर्फ
महसूस लेने से
गहरे बांध दी थी
और साथ
जो सदियो का था
यह मेरे अनकही बातो की एक घटना है
जो सत्य है और मौत जैसी है
जो धंस गई थी
मेरे जन्म के समय
मेरी नन्ही उंगलियो से
रौशनी पर बहते हुये आज
वक्त के उजले पंखो की गति मे
तेरे एहसास
सुबह सवेरे के आसमान पर
बिखरे इंद्रधनुष से लगते है
जो सूरज के आंखे खोलने से बनते है !
बहुत बढिया ,दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें
Kaafi sare jazbaat(sapne, zindaki ka anubhav, vyang, parivaar, samaaj aur sachaayi) bhi, apki kavita ko bhatakne nahi dete...
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