आज दिवाली के दिन
तारों से भरी धरती के बीच चाँद सिर्फ ख्याल में है
आतिशबाजियों के शोर
ख्यालों में खलल डालते हैं
और चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है
धूप खोलना
और सुखाना रिश्तों पे गिर आयी सीलन
और खरोंच आ जाये तो करना कुछ मलहम जैसा
थी तुम्हारी आदत
कभी धूप और कभी बारिश के लिए
और कभी धूप में होती बारिश को महसूसने के लिए
चलते चले जाना धरती के छोर तक
मेरे साथ चलते हुए
अब ये सब सिर्फ ख्याल में हैं
धुप और बारिश के अभाव में
अब ख्याल भी पतझड़ होने लगे हैं
और जब मेरा पतझड़
मुझपे बडबडाने लगता है
और रात देर तक पत्तियों का गिराना नहीं रोकता
मैं पलट कर जबाब देने के बजाये
अपनी नंगी होती शाखें लेकर
निकल जाना पसंद करता हूँ
चुपचाप तुम्हारी कविताओं में
पर अब तुम्हारी कवितायें चलती चली जाती हैं
और धरती का वो छोर नहीं आता
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16 comments:
ये मऔसम, स्मृतियाँ यदि ऐसा ही भाव लिये बनी रहतीं तो कितना अच्छा रहता।
धुप और बारिश के अभाव में
अब ख्याल भी पतझड़ होने लगे हैं
ऐसे मौसमों का बैकअप हो जाए तो फिर यादें कहाँ रहेंगी ...खूबसूरत रचना
'बैकअप' यह भी शब्द क्या खूब इस कविता में !
खूबसूरत !
शानदार रचना .कभी २ मन करता है आपके दिमाग का स्कैन कराऊ....
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 09-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
मैं पलट कर जबाब देने के बजाये
अपनी नंगी होती शाखें लेकर
निकल जाना पसंद करता हूँ
चुपचाप तुम्हारी कविताओं में
पर अब तुम्हारी कवितायें चलती चली जाती हैं
और धरती का वो छोर नहीं आता
वाह !! बहुत खूब ...
पृथ्वी आज शाम ओस से
नहाये शाख पर बैठी
नन्ही चूजो का इंतजार कर रही थी
कि शीतल हवाओ ने कोपलो को
नमकर गयी थी !
एक टीस का आभास करा देते हैं आप हमेशा जैसे बिना कहे ही बहुत कह जाना और फिर निर्लेप हो जाना……………एक बेहद गहन उम्दा रचना।
आतिशबाजियों के शोर
ख्यालों में खलल डालते हैं
और चाँद पे लिखी जाती कविता बीच-बीच में टूटती है
अच्छा लगा आपके तरीके से जिंदगी को और आपको जानना क्या कहूँ बस इसी सोच में हूँ बहुत गूढ़ बातें हैं कई बार पढ़ गयी जितना पढो उतना और नयापन निखरता जाता है बहुत गहराई है हर बात में
dharti ka chor kabhi nahi aata aur smritiyan chalti rahti hain....
komal kavitaon si!!
'धूप खोलना
और सुखाना रिश्तों पे गिर आयी सीलन'
वाह!
क्या खूब कविता लिखी है!वाह!
so nice
बंधुवर,
बहुत दिनों से आना-जाना नहीं हुआ. भाग-दौड़ और व्यस्तता भी रही !
इस बेहतरीन कविता के लिए बधाई देता हूँ ! आप अहसासों का तर्जुमाँ हिंदी के जिन शब्दों में, जिस अंदाज़ से करते हैं, वह हैरत में डालता है ! बहुत शानदार ! बहुत बधाई !!
हाँ. दबी ज़ुबान में निवेदन करना चाहूँगा कि 'शोर' को एकवचन में ही रखें तो इन अनूठी पंक्तियों से ये खटका भी हट जाएगा !
सप्रीत--आ.
धुप और बारिश के अभाव में
अब ख्याल भी पतझड़ होने लगे हैं
पता नहीं धूप ने वंचित किया है अपनी किरणों से या हम खुद ही को धूप से वंचित कर दिये हैं.
शानदार अभिव्यक्ति और रचना
main to shirshak se khinchi aayi..superb!
congrats for two beautiful poems :)
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