Wednesday, November 20, 2019

और इस तरह मारा मैंने अपने बोलने को

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मुझे कुछ बोलना था
पर मैं नहीं बोला
और ऐसा नहीं है कि
मैं बोलता तो वे सुन हीं लेते लेते
पर मैं नहीं बोला
मैं नहीं बोला जब कि मुझे
एक बंद कमरे से बोलने की सहूलियत भी थी
मेरे हाथों में माइक भी दी गई थी
और मैं आवाज बदलकर भी बोल सकता था
और चेहरा बदल कर भी
पर मैं नहीं बोला
मैं तब भी नहीं बोला
जब रवीश कुमार ने कहा कि बोलना ही है
और वरुण ग्रोवर ने तरीके सिखाए हंसी हंसी में बोलने की
मुझे याद आती रही सुरजीत पातर की कविता
जिसमें एक कवि हो जाता है कविता का हत्यारा
और पंक्तियां लिख लिख कर काटता है
मैं होता तो शायद बिना लिखे ही काट डालता
मुझे मालूम था कि
आज के जमाने में यह तर्क कितना स्वीकार्य है
कि कितना कठिन है बोलना
जब के सामने एक ताकतवर आदमी हो
और जब हमने देखा हो एक ताकतवर आदमी के सामने बोलने का हश्र
मुझे जो भी बोलना था
तर्क की आड़ में
उसे मैंने नहीं बोलकर पूरा किया
मैंने कहा कि यह तब भी मुश्किल है
जब सामने का ताकतवर आदमी खुद आगे बढ़कर कहे कि बोलो
क्योंकि क्या पता वह किस तरह से बोलने को किस तरह से दर्ज करें
और किस तरह की गुरिल्लगी कर दे बाद में
और तब भी मुश्किल है
जबकि कहा जाए कि संविधान बोलने की आजादी देता है, कि बोलना आपका अधिकार है
क्योंकि क्या पता संविधान की व्याख्या कब किस तरह से कर दी जाए
और इस तरह के तमाम तर्क दिए खुद को मैंने
अपने नहीं बोलने के बारे में
खुद को क्योंकि किसी और को पता ही नहीं था
मेरे नहीं बोलने के बारे में
और इस तरह मारा मैंने अपने बोलने को!


Sunday, November 3, 2019

एक भिंची हुई मुठ्ठियों की हैसियत तक!


हालात को यही मंजूर था-
यह कह कर
जब हम वहां से उठ आए,
लौटने के रास्ते में
हम अपने मामूलीपन से गुजरते हुए आए

हम खुद से
कुछ कहते हुए वहां से आए
बड़ी ही मामूली सी कोई बात
जिसे बाद तक याद रखना
जरूरी नहीं समझा
न मैंने और न किसी और ने

हमने अपनी बौखलाहट पर
बहुत पहले और बहुत बार
ठंडा पानी डालने जैसा कुछ किया था
और अक्ल पर जानबूझकर कोहरा मलने जैसा
जिसके कारण
अब हमारी मुट्ठी में भीचने के लिए कुछ बचा नहीं था
और वह जो अब बचा हुआ था, बेहद मामूली था

काश! हम तब समझ पाते
कि आखिर में जो बचता है
वह बेहद मामूली होता है
और उसके लिए
असली चीज पर ठंडा पानी डालना
कोई मामूली बात नहीं होती!

पर कोई बात नहीं 
अब जब केवल मामूली हीं बचा है 
और जिसका कि मुझे पता है 
तब मैं सोंच रहा हूँ मामूलीपन से निकलने के बारे में 
और पहुंचने के बारे में 
एक भिंची हुई मुठ्ठियों की हैसियत तक फिर!


Saturday, September 7, 2019

आप इसे आप कविता जैसा कुछ मान सकते हैं!

सरकार स्कूल अच्छा नहीं चला पा रही थी
तो उसने कहा
कि खेलना बहुत जरूरी है बच्चों के लिए
सरकार ऐसा बताना चाहती थी
कि देश से बेरोजगारी इस तरह
खत्म की जा सकती है
ऐसा शायद इसलिए था क्योंकि
गोल्ड मेडल जीतने वाले खिलाड़ी भी
किसी चौक चौराहे पर
चाय - पकोड़े का रोजगार कर लेते थे
पर पढ़े लिखे लोगों में
बेकार या बेरोजगार होने की आदत हो जाती थी
जिसका कि बेरोजगारी के आंकड़ों पर बुरा असर पड़ता था
सरकार बहुत सालों से गरीबी हटाना चाहती थी
इसके लिए वह कई योजनाएं भी लाती थी
और गरीबी हटाने का नारा देती थी
फिर उसने गरीबी के साथ गंदगी हटाने का भी नारा दिया था
योजनाएं कितनी आती थी इसका ज्यादा पता नहीं चलता था
पर नारे जरूर आ जाते थे और वे चलते रहते थे
एक समय पर आकर
सरकार को ऐसा लगा था कि नीति अच्छी हो तो बिना योजनाओं के भी काम चलाया जा सकता है
फिर किसी दिन सरकार की नीति में यह तय किया गया
कि गरीबी हटाने से बेहतर है गरीबों को हटा दिया जाए
और फिर उसने एक दिन उनसे कहा कि
अब से तुम हमारे देश के नागरिक नहीं होगे
चुनाव के ठीक पहले
अर्थव्यवस्था को बुखार हो जाता था
जिससे वो कूदने लगती थी
और जब बाद में पेरासिटामोल खाने के बाद
वह ठंडी पड़ जाती थी
और फिर उसे रिजर्व बैंक से उधार लेकर
रिवाइटल खिलाया जाता था
ताकि वह गर्म हो सके और थोड़ा दौड़ सके, चल सके
न्यायालयों की प्राथमिकताएं बदलती रहती थी
कभी वह इस बात पर चर्चा करने लगती थी
कि राम कहां जन्मे या फिर वहां कोई घंटी मिली या नहीं मिली
और कभी किसी रेप केस पर हजारों पन्ने का फैसला पेश करती थी
ऐसा लगता था कि कानून अंधा होते हुए भी संवेदनशील था
और उसकी कोई तीसरी आँख थी जिससे वो
जिसे जब देखना चाहता था उसे तब देख लेता था
और अदालतों के बाहर एक मीडिया की अदालत में
बहस देखकर
कई लोग यह मान लेते थे कि सारी समस्या
किसी खास तरह के लोगों की वजह से थी और इनका
देश निकाला करना बहुत जरूरी था
और उधर वह बेचारी नाबालिग लड़की रोती थी
जो किसी गैंगरेप के बाद पेट में पलते हुए बच्चे को
गिराने के लिए न्यायालय के आदेश का इंतजार करती थी
जिसे कोर्ट लगभग भूल सा गया था
सरकार रेप के क़ानून को सख्त से सख्त करती जाती थी
और सोंचती थी कि बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए
सख्त कानून बनाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था जो इतना प्रभावकारी हो
विकास के मायनों में एक महत्त्वपूर्ण बात
एयरपोर्ट के रास्तों को
बिल्कुल चमकदार बना दिया जाना था
शायद इसलिए कि
देश में दाखिल होने वालों और
देश से भागने वालों के मन में देश की चमकदार छवि बनी रहे
कुछ लोग कहते थे कि
मीडिया का जन्म लोकतंत्र को बचाने के लिए हुआ था
पर उसका किसी ने ब्रेनवाश कर दिया था और
अब वह जहां भी लोकतंत्र को देखती थी
सरेआम गोलियों से भून देने की बात करती थी
कुछ लोग इसे मीडिया का आतंकवाद कहते थे
पर ज्यादातर लोग चुप थे
कुछ पागल से लगने वाले लोग थे जो कहने लगे थे
कि अब मीडिया ने लोगों को आतंक-पसंद बना दिया था
और इस तरह लोगों को लगने लगा था कि
देश को शांति वाली अपनी छवि जल्दी से जल्दी छोड़ देनी चाहिए
सरकार जनता को समय-समय पर तोहफा दिया करती थी
और उसे लगता था कि यही उसका काम है
और वह कहना चाहती थी कि लोगों को समय-समय पर तोहफा मिल ही रहा है
तो वे अपने काम से काम रखें और उनका साथ दें
ऐसा सालों सालों से हो रहा था था पर कुछ लोग थे और उनकी संख्या काफी अधिक थी
जो गांधी जी के तीन बंदरों से बेहद प्रभावित थे
जो न कुछ देखते थे, न सुनते थे और ना हीं कुछ बोलते थे
चाहे सरकार जो करे
यह कविता
उन लोगों के बारे में ही है और मेरे बारे में भी
आप इसे कविता या जो चाहे मान सकते हैं
पर यह सरकार के बारे में बिल्कुल नहीं है !



Wednesday, April 3, 2019

इसकी-उसकी आड़ में हत्याएँ!

एक भीड़ का हिस्सा होकर
जिस दिन तुम्हारे हाथ
आततायी हाथों में तब्दील हो गए
उस दिन की रात घर तो नहीं लौटे होगे तुम

और अगर लौटे भी होगे तो
तो घर के किसी कोने को पकड़ कर सिमट गए होगे
बत्तियों को कर दिया होगा बंद
और बीबी-बच्चों को, माओं-बहनों को कर दिया होगा पास आने से मना
फिर तुम अँधेरे में बेआवाज रोये भी होगे
जब तुमने सोंचा होगा
उस आदमी और उसकी आँखों में उभरे खौफ और लाचारी के बारे में
और तुम्हें डर भी लगा होगा
जब तुमने उसकी जगह खुद को रख कर देखा होगा
अगली रोज अखबार पढने के बाद

या मैं गलत सोंच रहा हूँ
तुम और तुम्हारे जैसों के बारे में
तुम वो हो
वही जो जीतने के लिए,
सत्ता बनाने या बचाने के लिए
मारने या रेप करने के लिए
या फिर अपनी मामूली जरूरतों के लिए
बनाते हो एक भीड़ 
और उसकी आड़ में करते हो हत्याएं

तुमने ईजाद की है हत्या की ये तकनीक
जहाँ क़ानून के साथ कुश्ती खेली और जीती जा सकती है

अगर मान भी लिया जाए कि तुम वो नहीं हो
जो मामूली जरूरतों के लिए
कायरों की तरह लेते हो भीड़ की आड़
कि तुम डरे थे, आशंकित थे अपनों के लिए
कि जायज था तुम्हारा डर

तो भी सिस्टम की असफलता को
किसी एक के माथे कैसे थोप दिया

उस वक्त
जब तुम उस भीड़ का हिस्सा बने और की हत्याएँ
क्या कर सकते थे तुम अपनी आड़ में

क्या तुम्हारा गुस्सा
वास्तव में किसी अन्याय के खिलाफ था

Tuesday, April 2, 2019

अभी ख्वाब के गहराने के दिन हैं !

मैंने छुए अल्फाज उसके
और उसने मेरी ख़ामोशी पे अपने हाथ रखे,
कभी पहले हुई कविता फिर कविता हुई


फिर वो मॉनसून हुई
और मैं बारिश,
सूखे गिले सारे गीले हुए


हंसी वाले उसके दो होंठ फिर खुल कर
चूमने लगे बादल
मुझे ठीक से पता नहीं कब बरसने लगी बूंदे,
धरती पर
टप-टप
हर तरफ हँसने की गीली तस्वीरें


जैसे हीं कविता फिर
विस्तार लेकर निराकार हुई
मैं उसमें गुम होकर आकार हुआ


जाने ये सब कितनी जल्दी हुआ
कि जरा सी देर में सब भर गया,
आँख भी, ख्वाब भी
और आँखों में अरसे से बने ख्वाब के घाव भी


अभी ख्वाब के गहराने के दिन हैं
उन्हें अभी और भरना है









Friday, March 22, 2019

उसके लिए जो खोलता है मुझे

वो लौट आया है!

वो लौट आया है
वे दिन, लौट आये हैं उसके साथ

मगर, ये लगभग तय सा है कि
वे दिन जो लौट आए हैं उसके साथ,
फिर लौट जाऐंगे उसके साथ हीं

सांसें कितनी उठ रही हैं उंची
ख्यालों में, तमाम तरह के जुर्म हो रहे हैं इकठ्ठा
रातों के होने के ढंग में भी सपनों से खलल है
और मेरी बाहें फैली हुईं हैं
उन थोड़े से उन दिनों को बांधने के लिए
जो मुठ्ठी भर हैं

वो जो रोकता है और वो जो खोलता है
उसके दरम्यान उठती
आंधियों को रोकते-रोकते बारिश को आंखों तक आते अभी-अभी देखा मैंने

ये जानने के बावजूद कि
वे दिन जो लौट आये हैं उसके साथ
वे दिन फिर लौट जाऐंगे उसके साथ हीं
हम कुछ अफसोस फिर से रख लेंगे संजो कर
अगली बार की वसंत के लिए!!