Saturday, December 4, 2021

आवाज के सुनाई देने तक

आवाज अगर कहीं है 
तो वह निकल आएगी 
कहीं से भी, कभी ना कभी
और किसी न किसी को जरूर सुनाई दे जाएगी

सुनाई दिए जाने तक 
ठहर कर इंतजार करती है वह
अनसुना करो तो तेज होने लग जाती है
या फिर कोई और कान तलाशने निकल जाती है
अपने होने और निकलने की जगह बदल सकती है आवाज 
वह दबकर ज्यादा देर नहीं रहती

बहुत समय से दबाई गई आवाज का भी 
समय के किसी न किसी बिंदु पर निकल जाना  तय है
हां पर निकलने का रास्ता और तरीका वो खुद तय करेगी

कभी इस तरह निकलती है वह 
कि लगता है निकलने की ही आवाज है
और कभी इस तरह कि निकलने का पता ही नहीं चलता
हर तरफ सिर्फ आवाज ही आवाज

आवाज को साथ बैठने के लिए
कोई दूसरी आवाज जरूर चाहिए होती होगी
पर क्या शोर वाली जगहों पर कई आवाजें एक साथ बैठी होती है और कर रही होती है बतकही 
या फिर क्या रो रही होती हैं एक साथ बैठकर कई आवाजें 
या फिर यूं भी कि तोड़े जाने के खिलाफ वह हो रही होती हो लामबंद

नहीं मालूम कि 
आवाज को तोड़ते जाने से आखिर में क्या मिलेगा
और जो मिलेगा उस आवाज के कण को क्या कहेंगे
क्या वह एटम जैसी कोई चीज होगी 
जिससे कोई आणविक विस्फोट भी हो सकता है 

तो फिर क्या कोई विस्फोट होने वाला है
क्योंकि आवाज को तोड़े जाने का सिलसिला जारी है

क्या तुम सुन पा रहे हो 
तुम्हारी आवाज को कोई आवाज दे रहा है

Tuesday, November 9, 2021

तुम्हारी यादों के ठीक सामने

दिवाली है,
बोनस में थोड़ा वक्त मिला है 
यादों की सफाई कर रहा हूं

कुछ समय के लिए छोड़ दो तो
कई तरह के झाड़ झंखाड़ उग आते हैं 
और खड़े हो जाते हैं 
उन यादों के सामने
जिन्हें मन अपने ड्राइंग रूम में 
ठीक सामने रखना चाहता हैं 
कि आते जाते जब जरा सी भी फुर्सत हो 
तो उसके ठीक पास बैठने का सुकून हासिल हो

कुछ तो 
मकड़ी के जालों जैसे हैं
बड़ी आसानी से साफ हो जा रहे हैं 
और यादों की तस्वीर खुलकर साफ सामने आ जाती है
और कुछ जिद्दी, पुरानी जमी काई की तरह
छुड़ाए नहीं छूट रहे
ज्यादा खुरच दो 
तो तस्वीर का कोई हिस्सा ही 
साथ में बाहर लेकर आ जाए इस तरह
जैसे यादों के देह पर कोई घाव

सफाई के दौरान मिली हैं कई ऐसी भी यादें 
जो टूटे-फूटे रद्दी के सामानों के अंबार के पीछे दबकर लगभग खो सी गई थी 
पर जब मिल गई तो लगा वे वही थी, कहीं खोई नहीं थी

करीने से लगा दी है
एक-एक कर झाड़ पोछ कर 
कई यादों को सहेज कर रख दिया है
ड्राइंग रूम में ठीक सामने तुम्हारी यादों को रखा है
वहां साफ सफाई होती रहेगी

© ओम आर्य

Saturday, May 29, 2021

हाथी का समाचार!

एक हाथी है जो घोड़े बेच कर सो रहा है 
जबकि जंगल में हाहाकार मचा है 
कोई उसे जगाने जाए 
तो वह पागल होने लगता है

एक समाचार है 
जो लगातार तोड़ने के प्रयास में है
वह न तोड़ पाने के दबाव में टूटता जा रहा है

एक समाचार वाचक है जो जानबूझकर भूल गया है 
समाचार और विचार में फर्क
उसका सारा जोर इस बात पर है 
कि किस तरह समाचार में विचार जोड़ा जाए, आवाज का हथोड़ा जोड़ा जाए
कि वह ब्रेकिंग हो जाए

आप कह सकते हैं 
कि हाथी के घोड़े बेच कर सोने वाली बात में समाचार और समाचार वाचक क्या कर रहा है
तो मैं कहूंगा हाथी की नींद
इसलिए नहीं टूट रही क्योंकि समाचार टूट गया है!

Sunday, May 16, 2021

तुम बताओ अपना हम अपना क्या बताएं!

तुम बताओ अपना हम अपना क्या बताएं!
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जब तुम पूछते हो हमारा हाल और हम कहते हैं कि हम ठीक हैं 
तो हमें सही सही पता नहीं होता कि हम कितने ठीक हैं 
और ना ही तुम्हें पता चल पाता होगा कि हम कितने ठीक हैं जब हम बताते हैं

कोई पूछता है तो बिल्कुल सही सही नहीं 
पर एक हद तक हम आकलन कर लेते हैं कि सामने वाले को 
अपने ठीक होने के बारे में कितने संक्षिप्त या विस्तार से बताना है 
और वह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हाल किस तरह पूछा छा गया है 
या पूछने वाला कौन है

यह अजीब समय है 
कि इस समय में खैरियत पूछना और जानना कितना जरूरी हो गया है हर किसी के बारे में 
पर उतना ही मुश्किल हो गया है जानकर कुछ कर पाना

संवेदनाएं कोई वस्तु नहीं है 
कि उन्हें ऑनलाइन भेजा या मंगाया जा सके, 
उन्हें बिना गले लगे या लगाए, 
अप्रत्यक्ष रूप से, पहुंचाने या प्राप्त करने का कोई तरीका अभी सामने नहीं आया है
पर हम किसी तरह इमोटिकॉन्स के सहारे चला रहे हैं अपना काम
पर सदमे के लिए नहीं बना है अभी तक कोई इमोटिकॉन भी 
जब सब कुछ जज्बात में धंसा हुआ सा होता है

एक तरफ हम पर 
सकारात्मक बने रहकर अपने दुखों को इग्नोर करते रहने का बोझ है
और दूसरी तरफ 
हम इतने दुखों में शामिल हैं कि शामिल होने के लिए दुख कम पड़ रहे हैं!

© ओम आर्य

Thursday, May 13, 2021

मरे हुए चुपचाप घर लौट कर!

हमने कुछ लाशों को गिना
और वे ढाई लाख हुए
और उससे कई गुना लाशों को हमने नहीं गिना
या फिर
उन्हें गिनती की दायरे के बाहर धकेल दिया
उनकी संख्या हमें नहीं मालूम
वे कितने हुए

भेदभाव हमारे खून में है 
कहने के लिए हमारे खून का रंग लाल है

यह हमारे चलन में हैं
कि कुछ लाशों को हम नहीं गिनते 
बस दबाते जाते हैं मिट्टी के भीतर
या बहाते जाते हैं पानी में
और कभी कुछ जिंदो को भी
अपनी जरूरत के अनुसार

आंकड़ों में देश अच्छा दिखना चाहिए
और इसके लिए हम कुछ भी खराब कर सकते हैं 

सरकार कहती है कि लोग नहीं समझते 
कोर्ट कहता है सरकार नहीं समझती
व्यापार हिंसक रूप में है हर जगह
अस्पताल अंदर ही अंदर चुपचाप मार देता है
मर जाने वाले को भी 
और बच जाने वाले को भी
और व्यवस्था चुपचाप मर जाने देती है

और इस दरमियान
हम चुपचाप अपनी अपनी लाशें उठाए
लौटते हैं घर
चुपचाप... क्योंकि हम समझते हैं
कि खिलाफ में बोलने का यह समय नहीं है!






Thursday, May 6, 2021

इस महामारी के तंत्र में प्यार

मुझे नहीं पता तुम कहां हो 
कैसी हो, किस हाल में हो 
अब हो भी या नहीं हो
और इस महामारी में इस देश और दुनिया ने 
तुम और तुम्हारे शहर के साथ कैसा बर्ताव किया है

फिर से यह मानने में मुझे अच्छा हीं लगेगा
और जिनके सामने मानूंगा उन्हें भी निश्चित हीं 
कि मैं तुम्हें भूल नहीं सकता
क्योंकि उनका विश्वास और भी मजबूत होगा
कि प्यार कोई भूलने वाली चीज नहीं होती
और वे सब भी 
इस महामारी के एक-एक कर मरते दिनों में
कभी-कभी तो जरूर लौटते होंगे
अपने प्यार के फेसबुक या इंस्टाग्राम अकाउंट पर
हाल जानने के लिए

मुझे नहीं पता 
तुम किस छद्म नाम से फेसबुक पर हो 
या हो ही नहीं वहां
पर अब यह जरूर लग रहा है
कि अगर आपने किसी से कभी प्यार किया है 
तो फेसबुक पर सही नाम और तस्वीर के साथ 
एक अकाउंट जरूर रखना चाहिए 
और उसे नियमित अपडेट भी करते रहना चाहिए

ऐसा करना इसलिए जरूरी है
क्योंकि इस दुनिया के बहुत सारे देश, उनका तंत्र और लोग 
आदमी की खराब स्थिति को एक मौका मानते हुए अपनी ताकत और मुनाफे को
बढ़ाने के प्रयास में और तेजी से लग जाते हैं
और उस समय
आपको कोई प्यार करने वाला चाहिए होता है
जिसे पता हो आपकी स्थिति के बारे में

Friday, January 1, 2021

साल-दर-साल सिर्फ साल बदलते हैं!


वे कहीं से भी आए हो 
या फिर कहीं से भी नहीं आए हो
(क्योंकि उनमें से कई अब कहीं के नहीं है) 
वे यहीं हैं अपने संघर्ष, अपनी लड़ाई के मोर्चे पर
अपनी पसलियां ताने 
हर एक के पीछे वे दस हजार में हैं

वे अपना 
छोटा बड़ा जितना भी है घर और अनाज
पीठ पर लाद कर ले आए हैं
और बैठ गए हैं सड़क पर
सड़क जो कहीं भी जाती हुई दिखाई नहीं देती

वे जाड़े की ठिठुरती रात में
सड़क पर खड़े तंबूओं में बल्ली लगे हैं
वे गेहूं की बोरियां हैं, जलावन की लकड़ियां हैं
बेलती और फुलाती हुई रोटियां भी
सुबह सुबह की चाय की घूंट के साथ गले तक पहुंचने वाली गरमाई भी हैं
ट्रॉली के टायर और उसमें भरी हुई हवा भी हैं वे

वे वहां वैसे हैं जहां जैसी जरूरत है
मगर वे हैं वहीं आंदोलन के गीत में बजते हुए 
अपने अखबार की रोशनाई में छपते हुए

वे इतने हजार तरह के माइनस में हैं
कि माइनस में गया पारा भी 
अब उनकी हड्डियों को, उनके जज्बे और हौसले को छूने से पहले एक बार सोचता है
हुकूमत मगर फिर भी जिसे गला देना चाहती है

उन्हें आत्महत्याओं के आंकड़ों में मत देखिए
वहां वे सिर्फ इसलिए रखे गए हैं
क्योंकि सरकार को पता है 
कि उनकी हत्याओं की तहकीकात में 
किसका नाम आएगा

वे बार-बार निकल कर आते हैं 
आंकड़ों से बाहर सड़कों पर और पूछते हैं
कि हत्यारा कौन है
हत्यारा कहता है कि वो अब और हत्या नहीं होने देगा

वे कह रहे हैं कि वे वहीं  हैं
और उनका वहीं होना माना जाए 
तब भी 
जब वे चले गए होंगे
रोपाई कटाई के लिए अपने खेतों में
क्योंकि सड़क पर आंदोलन जोतना  
और मांगे रोपना
अब फसल उगाने के तरीके में शामिल कर लिया गया है

अगली बार वे जब आएंगे
तो अपना छोटा बड़ा जितना भी है खेत
सड़क पर ले आएंगे
और वहीं लहलहाएंगे और लहराएंगे आंदोलन!

© Om Arya

Photo Credit: scroll.in