Saturday, September 24, 2011

वक़्त रिअर ग्लास की तरह है

वक़्त मोड़ देता है
कभी कान उमेठकर हौले से
कभी बाहें मदोड़ कर झटके से
और कभी इस तरह कि
बस चौंकने भर का मौका होता है

वो मोड़ता है तो
मुड़े बिना मैं नहीं और वो भी नहीं
कोई और हो तो हो
इसका पता नहीं

जब आग लगी थी
और जब जलने का मजा था
हमारा मोम पिघल कर  मिलने लगा था
वक़्त ने हमें नाक से पकड़ा
और मोड़ कर हमारी पीठ एक दूसरे की तरफ कर दी

हम किधर गए
कौन से पार किये रास्ते
वो सिर्फ वक्त को मालूम होगा
मुझे बस ये मालूम है कि
वो पिघला मोम जमा नहीं

आँखों के पानी में सब धुंधले हुए
और यूँ लगता है कि
सब न जाने कितने कोस दूर है अब

पर ऐसा सिर्फ लगता है
वास्तव में है नहीं
दरअसल वक़्त रिअर ग्लास की तरह है
चीजें ज्यादा दूर दिखाई पड़ती हैं

Friday, July 1, 2011

देश सबके लिए आजाद हो...

सवाल छोटे हों
और संक्षेप में दिए जा सकें उनके जबाब
या फिर वस्तुनिष्ट हों तो और भी अच्छे

नाम आसानी से बदले जा सकें
जैसे बदल दिए जाते हैं कपडे
नाम के लिए ना लिखी जाएँ कवितायें

बस्तों में इतनी खाली जगह हो
कि उसमें रखे जा सकें तितलियाँ, कागज़ के नाव
और पतंग भी

जिनके पास पैसा हो
सिर्फ उन्ही के पास पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य न हो
जीने का अधिकार सिर्फ संविधान में न हो

अस्पताल में दवाइयां मिल जाएँ
और स्कूल में शिक्षा
और कलेक्टर का बच्चा भी सरकारी स्कूल में पढ़े

महंगाई के प्रति सब उदासीन न हों
दाम बढ़ें तो आवाज बुलंद हो

सड़क के दोनों तरफ उनके लिए फूटपाथ हों
और शहर में कुछ ढाबे हों
जहाँ बीस-पच्चीस रुपये में भर पेट खाना मिलता हो

देश सबके लिए आजाद हो...


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Thursday, June 9, 2011

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मुझे अफसोस है
सारा प्यार मैंने एक जगह हीं लगा दिया
नही रखा मैंने
तुम्हारे सिवा कोई दूसरा विकल्प

मुझे क्या पता था
कि बारिशें होती रहेंगी आगे
तुम्हारे बिना भी
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Saturday, May 14, 2011

मेरे किनारे मेकोंग नदी लेटी है

मेरे किनारे पे मेकोंग नदी लेटती है
यहाँ सूरज को
सिर्फ दो कदम चलकर डूबना होता है

रात भर सूरज डूबा रह कर
भले हीँ लौटता हो ठंढा होकर सुबह-सुबह
नदी सूखती जाती है थोड़ी-थोड़ी रोज

मेरे किनारे मेकोंग नदी लेटी है
मैं देर तक बैठता हूँ उसके किनारे
क्या पता कल वो हो न हो

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Wednesday, May 11, 2011

एक दिन अचानक...

हमें दूर होना था

हमने एक दूसरे में रखीं
अपनी-अपनी चीजें उठायीं
और खाली हो गए

कितना वक़्त
लगाया था हमने
भरने में अपने रिश्ते को,
एक-एक कर जलाई थीं
जिंदगी की लपटें

और एक दिन जलती लौ पे
हाथ रख कर
बुझा दिया उसको
हाथों से अपने

हमारे हाथ जले नहीं
हमारी नसें ढीली नहीं हुईं

हम कितने बेवफा थे
हमें कुछ मालूम नहीं था

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Thursday, May 5, 2011

वे सब लोग अब मर नहीं पाएंगे

बहुत से लोग
जो प्यार में कभी मर गए थे
और अब प्यार में जीने के लिए फिर पैदा हुए थे
उनकी मुश्किल थी कि
उन्हें लोग नहीं मिलते थे
जिन पे प्यार में वे दुबारा मर सकें
और सुकून हो

अकूत प्रेम अब कहीं नहीं दीखता था
फिल्मों में भी नहीं
जहाँ सिर्फ अभिनय से भी काम चलाया जा सकता है

कविता काफी देर तक
माथे पे हाथ रखे सोंचती थी
कि कुछ लिखे
कि वे सब लोग प्रेम पढ़ कर सुकून से मर सकें
जो मर के मरना चाहते थे

पर शब्दों का कहना था
कि वे अब उस तरह नहीं लिखे जा सकेंगे
जिस तरह पढ़े जाने की जरूरत है
इसलिए शायद
वे सब लोग अब मर नहीं पाएंगे

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Thursday, April 28, 2011

जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती हैं

शहर तीव्र है
इसके भागने की तरह-तरह की आवाजें हैं
कान के नीचे से सन्न से गुजर जाती है गाड़ियां
अंदाजा लगाते-लगाते कुछ वक्त लगता है
कि गुजरा कौन है

डर के आगे जाकर जीने की जरूरत है
ऐसा प्रचार किया जा रहा है
और कहा जा रहा है कि
इसके लिए पानी पीना काफी नहीं है

शहर बड़ा है
इसके लीलते जाने की प्रक्रिया का
अब कोई ओर-छोर नहीं
जमीन कम पड़ जाए तो
आसमान में हाथ लगा देता है तुरत

वे लोग जो प्रचार कर रहे हैं

ऐसा भी कहते हैं कि
विकास के लिए शहरीकरण जरूरी है
और कई उदाहरण भी बताते हैं

अगर आइन्स्टाइन की माने तो
शहर जितना बड़ा होगा
वहां आदमी उतना हीं ठिगना
पर फिर भी लगातार
शहरों को और बड़ा किया जा रहा है
शायद विकास के लिए छोटे आदमी चाहिए होते होंगे

दरअसल रेलगाड़ियों के डब्बों में लद कर
बड़े शहर के किसी स्टेशन पे

जो उतरते हैं चुचाप और
बिला जाते है
शहर की किसी छोटी संकरी गली-कुचों में
और अगले दिन से हीं
जिनका कोई नामों-निशान नहीं होता
उनके ठिगने होते जाने की क्या प्रक्रिया है


यह कविता उसी तलाश में यहाँ तक आयी है
पर कवि इसका हाथ छोड़ कर
अभी कहीं किसी गली के मोड़ पे चला गया है
जहाँ एक मासूम दुःख को रोंद कर
बड़े दुःख में तब्दील कर दिया गया है
और गली के कोने पे सड़ने के लिए छोड़ दिया गया है
जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती हैं

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Monday, April 25, 2011

उसके बरसने तक

वह बिस्तर के दूसरी तरफ बैठी है
मैं लेटा हुआ हूँ

वह कई बार आयी है
और इसी तरह बैठ कर गयी है बिस्तर के कोने पे
मैंने लेटे-लेटे कई बार बुलाया है उसे

घर की आवाजें बहुत देर खड़ी रह कर थक गयी है
और अब बैठी है
रौशनी गला दबा कर बीच-बीच में चीखती है

काफी देर हो गयी है
हम एक-दूसरे को पहचान नहीं पाते

बाहर आसमान में रात से हीं घने हो रहे हैं बादल

मैं जानता हूँ
उसे आते-आते देर हो जायेगी
और तब तक बारिश को हो जाना है

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Friday, April 22, 2011

मुझमें प्रेम नहीं अब!

1.

हम सब
या फिर हम सब में से ज्यादातर
बड़े हुए
और फिर बूढ़े
और मर गए एक दिन
बेमतलब

और बुद्ध और कबीर के कहे पे
पानी फेर दिया

2.

प्रकृति ने भूलवश रच दी मृत्यु
और जन्म उस भूल के एवज में रचना पड़ा उसे

मृत्यु भी
झूठ लगती है अब

सभी हैं जीने को अभिशप्त !

3.

जब तक मैं शामिल नहीं हूँ
तब तक मुझे आस है
कि कुछ और लोग भी नहीं होंगे
उस बुरे कृत्य में शामिल

भले हीं दिखाई न पड़ें वे

4.

जितनी मोची पाता है
फटे जूते की मरम्मत कर के
या फिर कुम्हार घड़े बना के उठा लेता है सुख

उतना भी नहीं हासिल है मुझे
तुम्हें लिख के
कविता

मुझमें प्रेम नहीं अब!

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Saturday, March 26, 2011

कुछ किया जाए कि कविता को सहारा हो

समझा जाए किसी कविता को ठीक कविता हीं की तरह, कोई भी कविता इससे ज्यादा और क्या चाहेगी और कवि को भी इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहना चाहिए। मौन में उसके उतर कर, कान लगा कर सुनी जाए उसकी आवाज। वो कहे रोने को तो जरूर रोया जाए, उसका तड़पना महसूस किया जाए और जरूरत हो तो तड़पा जाये साथ उसके। कुछ किया जाए कि कविता को सहारा हो। कविता में अगर आग है, तो आप कहीं से भी हो, आग जरूर लायें और तपायें अपनी आग को कविता की आग में। कविता को झूठ न समझा जाए, न हीं उसे जोड़ कर देखा जाए कवि के शब्दों से। कविता के अपने शब्द होते हैं, नितांत अपने और अगर आप उन्हें जला भी दें तो आवाजें आयेंगीं। दरअसल कविता का लिख दिया जाना कवि द्वारा हार स्वीकार कर लिया जाना है कि अब कविता के बारे में उससे कुछ नहीं किया जा सकेगा और तब जिम्मेवारी आपकी बनती है

Wednesday, March 16, 2011

गन्दा समय और गालियाँ

समय बहुत गन्दा हो गया था और उसे साफ़ करने में न जनता हाथ लगाती थी और न सरकार मोहल्ले में सफाई वाले का इन्तिज़ार रहता था पर वो अक्सर नहीं आता था उसका कहना था कि यहाँ गन्दगी अधिक होती थी देश का भी कुछ ऐसा हीं हाल था सफाई वाला जाने किसे अनाप शनाप गालियाँ बकता था और इंतज़ार में रहता था कि किसी रात किसी के घर आयकर का छापा पड़े और उसकी सुबह कूड़ेदान में उसे नोटों से भरा थैला मिल जाए वो भी जनता की तरह का आदमी था गालियाँ देना उसे अच्छा लगता था समय और सरकार को गालियाँ देते हुए उसे जितनी भी नींद आती थी उससे वो गुजारा कर लेता था और सुबह उठ कर फिर गालियाँ देने लगता था सभाओं में जनतंत्र की परिभाषा अक्सर दुहराई जाती थी पर न जनता मानती थी और न हीं सरकार कि वे एक हैं वे मानते थे कि वे अलग-अलग हैं और प्रत्येक ये मानता था कि दूसरा गंदगी फैलाता है संसद का ये काम था कि वो हंगामे करे मीडिया का काम था वे उन्हें गालियों में शिक्षित करें और जनता ये मान बैठी थी कि बिना हंगामे और गालियों के सरकारें नहीं चलतीं सरकार जन-जन तक ये सन्देश पहुंचा देती थी कि शिक्षा, स्वस्थ्य, सफाई, सड़क, रोजगार और इस तरह की तमाम चीजें वो मुहैया कराएगी जनता मान कर हाथ पे हाथ धर कर बैठ जाती थी पर मुंह खुले रहते थे और गालियाँ निकालना जारी रहता था कवि को भी समय समय पे अच्छी कविताओं की जरूरत रहती थी नहीं तो उसमें और बिना कवि के आदमी में कोई फर्क नहीं रह जाता था उसकी कविताओं में गालियाँ भरने लगती थी और समय ज्यादा गन्दा हो जाता था

Sunday, March 13, 2011

मैं चाहता हूँ अपना अंकुरण

जहाँ से संगीत उठता है
और धीरे-धीरे चढ़ता है पहाड़
और कभी-कभी अचानक भी
उस तार में छेड़ कर छोड़ दिया जाऊं
झंकृत
और बजूँ पृथ्वी के घुमने तक

आत्मा जो सो गयी है
खो गयी है
नहीं पहुँच पाती मेरी भी आवाज उस तक
रोम-रोम में भर सकूं इतना उत्ताप
कि हो जाए कुण्डलिनी उसकी
जागृत
और फिर न सोने दूं उसको कभी

सांस खींचूँ तो
असीम ऊर्जा का हो आलिंगन
एक बार तो फूटे ये जिस्म

किसी कवच के भीतर जकड़ा हुआ
मैं चाहता हूँ अपना अंकुरण

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Tuesday, February 8, 2011

रूह में नंगे जाना होता है...

मैं चलता गया था उसकी तरफ
निरंतर
दूरी कितनी तय हुई मालूम नही

रास्ते में मै कही ठहरा नही जिस्म पर
और वो भी
रूह से पहले तक
दिखायी नही दी एक बार भी

अचानक से हुआ कि छू लूं
जैसे ही दिखी पर
अदृश्य हो गयी हाथ बढाते ही
तब लगा मैं
लिबास साथ लिये आ गया था

लौटना पड़ा मुझे
रूह में नंगे जाना होता है...

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Saturday, February 5, 2011

बदन पर का सतही तनाव बढ़ता जाता है

पिछला साल ख़त्म हुआ
और ये नया साल भी
अपनी रोजमर्रा की चाल से चलता हुआ
एक महीना और पांच दिन गुजार चुका है
और तमाम कोशिशों के बाबजूद
इस नए साल में
मैं प्यार नहीं कर पाया हूँ तुम्हें

दोष किसी भी चीज के मत्थे मढ़ दूं
पर हकीकत कुछ और है
और वो बहुत तेजी से बेचैन कर रहा है मुझे
और चौंकाता है कि
बिना प्यार के हीं चल रहा हूँ मैं आजकल

मुझे नहीं मालूम था
कि अचानक से ये खो जाएगा एक दिन
मृत्यु के पहले हीं
और मुझे केवल सांस के सहारे
छोड़ दिया जाएगा

तभी तो कभी जरूरत नहीं समझी जानने की
कि कहाँ से उगता है,
कैसा है इसका बीज और
किसने रोपा था इसे
और अब तो कहीं दीखता हीं नहीं ये
अब कहाँ पानी डालूँ, कहाँ दिखाऊं धूप

पतझड़ में नंगी शाखों की पीड़ा
अब बहुत घनी है मुझमें
बदन पर का सतही तनाव बढ़ता चला जाता है
दरारें उगती आती हैं

तुम तक पहुँचने की
और तुम्हारा ह्रदय छू लेने की उत्कंठा
उत्कट हुई जा रही है
मैं मर रहा हूँ
और जाने क्यूँ ऐसा लग रहा है कि
तुम देख भी नहीं पा रही
तुम तक पहुँचने की मेरी जद्दोजहद

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Wednesday, January 26, 2011

मुझमें अब बहुत शीशा और पारा है...

तुम तक लौटना है
और राह बनती नहीं

कई बार यूँ हुआ है कि
रखता गया हूँ
लब्जों को एक के ऊपर एक
और लगा है राह तुम तक पहुँचने की
मिल गयी अब
पर फिर जाने क्या होता है
एक एक कर सारे लब्ज मुंह मोड़ लेते है
और तय किये सारे रास्ते
फिर सामने आ खड़े होते हैं

अब जबकि भर चुका है
मेरी हवा में इतना शीशा
और मेरे पानी में इतना पारा
मुझे लौटना हीं होगा तेरे गर्भ में ओ मेरी नज़्म
और फिर जन्मना होगा अपने मूल ताम्बई रंग में
पाक होकर

मुझे तुम तक लौटना हीं लौटना है
पर जो मैं न लौट सकूं तुम तक
तो तुम आगे बढ़ आना ओ मेरी नज़्म
मुझमें अब बहुत शीशा और पारा है...

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Wednesday, January 5, 2011

अपना थका शरीर तुम्हें सौपने के लिए कितनी वजह काफी है

जानता हूँ
पाँव उठा कर मेज पर रख लेने से,
तान कर घुटने बजा लेने से,
कंधे झटक लेने और पीठ सिकोड़ लेने से
या उँगलियाँ मोड़ कर फोड़ लेने से
इस आनुवंशिक थकान को मिटाया नहीं जा सकेगा

पर क्या इतनी वजह काफी है
हार मान लेने के लिए
और सौंप देने के लिए तुम्हें
अपना थका हुआ शरीर ?

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