जहाँ से संगीत उठता है
और धीरे-धीरे चढ़ता है पहाड़
और कभी-कभी अचानक भी
उस तार में छेड़ कर छोड़ दिया जाऊं
झंकृत
और बजूँ पृथ्वी के घुमने तक
आत्मा जो सो गयी है
खो गयी है
नहीं पहुँच पाती मेरी भी आवाज उस तक
रोम-रोम में भर सकूं इतना उत्ताप
कि हो जाए कुण्डलिनी उसकी
जागृत
और फिर न सोने दूं उसको कभी
सांस खींचूँ तो
असीम ऊर्जा का हो आलिंगन
एक बार तो फूटे ये जिस्म
किसी कवच के भीतर जकड़ा हुआ
मैं चाहता हूँ अपना अंकुरण
_______________
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Sunday, March 13, 2011
Saturday, June 12, 2010
बंजर होने के ठीक पहले
चूहे दौड़ते थे
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और
उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी
वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे
वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे
ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं
किसी पुरानी किताब के अनुसार
अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं
जिसका क्षय हो जाना तय था
बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था
कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे
आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था
संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था
कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था
-----
उनके पीछे कुछ और चूहे दौड़ते थे
और उनके पीछे कुछ और
उनकी दौड़ पेट तक हीं सीमित नहीं थी
वे दिमाग की नसों तक पहुँच चुके थे
और पूरे वक़्त
दौड़-दौड़ कर उँगलियों से
वासनाएं खुजाने में लगे रहते थे
वे अलग-अलग कई बिल बनाते थे
और नए इजाद किये तरीकों से खाते थे
और खाने के लिए
किसी भी हद तक जाते थे
ये बात सिर्फ चूहों तक सीमित होती तो
कुछ किया जा सकता था
पर चूहों के ऊपर प्रचलित
सारी कहावतें
अब आदमी के ऊपर
आराम से इस्तेमाल होती थीं
किसी पुरानी किताब के अनुसार
अच्छा वक़्त
गैर नवीकरणीय ऊर्जा की भांति था
इस युग को होश आने से पहले हीं
जिसका क्षय हो जाना तय था
बची हुई पीढ़ी की मस्तिष्कों में
भूख स्थायी रूप से काबिज हो चुका था
कुछ समाजशास्त्री
सारी वैज्ञानिक खोजों को
भुला दिए जाने के तरीके ढूंढ रहे थे
आत्माएं
बंजर होती जा रही थीं
और उनपे फिर से शरीर लगना
नामुमकिन सा था
संघर्षरत प्रकृति ने अपना आखरी आस भी
छोड़ दिया था
कवि अपनी देह में हाथ लगा चुका था
क्योंकि उसके पास
अब बेचने को कुछ नहीं बचा था
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Saturday, May 29, 2010
रिश्ते भी देह बदलते हैं...
घर लौटता हूँ
तो तुम्हारी यादें,
उसकी बाहों में खो जाती हैं
वैसे तो मुझे याद है
कि नहीं रहती इस शहर में अब तुम
पर फिर भी
धडकनों को न जाने क्या शौक है
रुक जाने का अचानक से
और दिल भी बहाने बना लेता है कि
तुम जैसा कोई दिख गया था
उधर वो अक्सर पूछ लेती है
रात को क्यूँ चौंक गए थे तुम
यूँ क्यूँ लगता है
कि कभी-कभी तुम्हारी धडकनें रुक जाती हैं
दफ्तर से लौटते हुए
नजरें मुड जाती है तुम्हारे घर की तरफ
पर कई बार भूल भी जाता हूँ
जब घर के लिए देर हो रही होती है
कभी-कभी घर लौटने पे
घंटी बजाने से पहले हीं
जब खोल देती है दरवाजा वो
तब सोंचता हूँ
यह केवल इन्तिज़ार नहीं है
तुम्हारी आँखों में भी
वो जो पिघल जाता था मिलने पर मुझसे
मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा
कि वो केवल इंतज़ार था
तुम्हारे जाने के बाद
सब वही तो चला रही है
कितना कुछ तो बढ़ भी गया है
दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं
तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्मा हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें
******
तो तुम्हारी यादें,
उसकी बाहों में खो जाती हैं
वैसे तो मुझे याद है
कि नहीं रहती इस शहर में अब तुम
पर फिर भी
धडकनों को न जाने क्या शौक है
रुक जाने का अचानक से
और दिल भी बहाने बना लेता है कि
तुम जैसा कोई दिख गया था
उधर वो अक्सर पूछ लेती है
रात को क्यूँ चौंक गए थे तुम
यूँ क्यूँ लगता है
कि कभी-कभी तुम्हारी धडकनें रुक जाती हैं
दफ्तर से लौटते हुए
नजरें मुड जाती है तुम्हारे घर की तरफ
पर कई बार भूल भी जाता हूँ
जब घर के लिए देर हो रही होती है
कभी-कभी घर लौटने पे
घंटी बजाने से पहले हीं
जब खोल देती है दरवाजा वो
तब सोंचता हूँ
यह केवल इन्तिज़ार नहीं है
तुम्हारी आँखों में भी
वो जो पिघल जाता था मिलने पर मुझसे
मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा
कि वो केवल इंतज़ार था
तुम्हारे जाने के बाद
सब वही तो चला रही है
कितना कुछ तो बढ़ भी गया है
दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं
तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्मा हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें
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Sunday, December 27, 2009
ये दर्द रोज कम होता जा रहा है !!
सूरज जल्दी-जल्दी डूब कर
शाम कर दिया करेगा
और शाम अपने तन्हाई वाले हाथ रखने के लिए
मेरे कंधे नही तलाशा करेगी
तमाम खीझ और उब के बावजूद
आत्मा बार-बार लौटा करेगी
वासना से लदी उसी सूजन वाले शरीर में
जिसे घसीटते रहने में
अब कोई उत्तेजना बाकी नही होगी
बिना तलब के हीं
मुझे जला लिया करेगा
थोडी-थोडी देर पे एक लंबा सिगरेट
और पी-पी कर मेरे ख़त्म होने का
इंतज़ार किया करेगा
रात पे कान रख के
मैं सहलाना चाहूँगा झींगुरों की आवाजें
और ख़राब होती टियुबलाईट की आवाज भी
मेरे मौन में कोई छेड़ नही कर पाएगी
आँखे जाग कर नींद देखने की
हर रोज कोशिश करेगा
पर कोई पागल सा सपना
उन्हें अफीम दे कर सुला दिया करेगा हर रोज
तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है
और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के
पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!
शाम कर दिया करेगा
और शाम अपने तन्हाई वाले हाथ रखने के लिए
मेरे कंधे नही तलाशा करेगी
तमाम खीझ और उब के बावजूद
आत्मा बार-बार लौटा करेगी
वासना से लदी उसी सूजन वाले शरीर में
जिसे घसीटते रहने में
अब कोई उत्तेजना बाकी नही होगी
बिना तलब के हीं
मुझे जला लिया करेगा
थोडी-थोडी देर पे एक लंबा सिगरेट
और पी-पी कर मेरे ख़त्म होने का
इंतज़ार किया करेगा
रात पे कान रख के
मैं सहलाना चाहूँगा झींगुरों की आवाजें
और ख़राब होती टियुबलाईट की आवाज भी
मेरे मौन में कोई छेड़ नही कर पाएगी
आँखे जाग कर नींद देखने की
हर रोज कोशिश करेगा
पर कोई पागल सा सपना
उन्हें अफीम दे कर सुला दिया करेगा हर रोज
तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है
और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के
पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!
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