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Tuesday, June 8, 2010

शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी

शहर के जिस हिस्से में आज बारिश थी
वहां आसमान
कई दिनों से गुमसुम था

चुपचाप,
जिंदगी से बाहर देखता हुआ एकटक

पर आज बारिश थी
और शहर का
वो गुमसुम हिस्सा
एकाएक अब पानी पे तैरने लगा था
जैसे कि डूब कर मर गया हो

पर प्यार था कि जिए जाने की जिद में था
और इसी जिद में
सेन्ट्रल पार्क के एक बेंच पे
एक नामुमकिन सी ख्वाहिश बैठी हुई थी
कि कहीं से भी तुम चले आओ,
और भर लो अपने आगोश में इस बारिश को

उधर आसमान का दिल भी
शायद बहुत भर गया था
या फिर
कहीं आग थी कोई
जो बारिश को बुझने हीं नहीं दे रही थी

शाम के घिर आने के बहुत देर बाद तक
कुछ बच्चे खेल रहे थे कागज़ के नाव बना कर,
छप-छप कर रहे थे पानी पर
उन्हें नहीं था मालुम अभी कि मुहब्बत कैसी शै है

वे नाव, शहर के उस हिस्से से
अभी ज्यादा जिन्दा थे

Saturday, May 29, 2010

रिश्ते भी देह बदलते हैं...

घर लौटता हूँ
तो तुम्हारी यादें,
उसकी बाहों में खो जाती हैं

वैसे तो मुझे याद है
कि नहीं रहती इस शहर में अब तुम
पर फिर भी
धडकनों को न जाने क्या शौक है
रुक जाने का अचानक से
और दिल भी बहाने बना लेता है कि
तुम जैसा कोई दिख गया था

उधर वो अक्सर पूछ लेती है
रात को क्यूँ चौंक गए थे तुम
यूँ क्यूँ लगता है

कि कभी-कभी तुम्हारी धडकनें रुक जाती हैं

दफ्तर से लौटते हुए
नजरें मुड जाती है तुम्हारे घर की तरफ
पर कई बार भूल भी जाता हूँ
जब घर के लिए देर हो रही होती है

कभी-कभी घर लौटने पे
घंटी बजाने से पहले हीं
जब खोल देती है दरवाजा वो
तब सोंचता हूँ
यह केवल इन्तिज़ार नहीं है
तुम्हारी आँखों में भी
वो जो पिघल जाता था मिलने पर मुझसे
मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा
कि वो केवल इंतज़ार था

तुम्हारे जाने के बाद
सब वही तो चला रही है
कितना कुछ तो बढ़ भी गया है

दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं

तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्म हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें


******

Wednesday, May 12, 2010

जरूरतें रात के वक़्त ज्यादा रोती थीं

लगभग हर सेकेंड
वे एक बच्चे को जन्म देती थीं
और वे खुद सात की संख्या में
हर घंटे मर जाती थीं

वे कुछ ऐसी दुनिया की औरतें थीं
जो सिर्फ आंकड़ों में विकसित होती थी

जिस शहर में
प्रधानमंत्री का निवास स्थान था
उसमें सब-सहारा से भी अधिक कुपोषित लोग थे
मगर सरकार का यह कहना था
कि ऐसा सिर्फ जनसँख्या ज्यादा होने की वजह से था

बच्चों को उनके पैदा होते हीं
हाथ में दुःख थमा दिया जाता था
दुःख जब बजता था
वे बच्चे मुस्कुराते थे
दुःख को झुनझुने की तरह काम लेने वाली
ये एक अलग दुनिया थी

बच्चों को
रात में थप्पड़ खाए बिना नींद नहीं आती थी

मार खाकर वे रोते हुए थक कर
खाली पेट सो जाते थे
ये तरीका उस दुनिया की माओं ने इजाद किया था

उनकी माओं के स्तन
कभी इतने विकसित नहीं होते थे
कि उनमें दूध आ सके
और उनके पिता
उस शहर की सड़कों पे रिक्शा चलाते थे
जहाँ प्रधानमंत्री रहते थे
और जहाँ सड़कों के किनारे
फूटपाथ बनाने पे स्थाई रोक थी
क्यूंकि सरकार मानती थी
कि पैदल चलने वाले कहीं से भी जा सकते थे
इसलिए सड़कों को सिर्फ तेज गाड़ियों के लिए छोड़ दिया जाए

हालांकि,
सरकार ये खुल कर नहीं बताती थी
कि पैदल चलने वाले लोग दरअसल
विकास की रफ़्तार में खड्डे थे
पर प्रयत्नशील थी कि
२०२० तक सारे खड्डे भर दिए जाएँ
और इसलिए आंकड़ों पे
अंधाधुंध काम हो रहा था

विकास के इस षड़यंत्र में
पानी दो रुपये प्रति घूँट बेचा जाता था
और ये कोशिश की जा रही थी
कि लोग भोजन खरीदने से पहले
दांतों की संडन रोकने के लिए टूथपेस्ट खरीदें
क्यूंकि प्रधानमंत्री पे
टूथपेस्ट की बिक्री बढाने के लिए
कई तरह के दबाब थे

तो इस तरह
विकास के इस नए युग में
चूँकि सड़कों के किनारे फूटपाथ नहीं थे
उन सभी बच्चों के पिता
अपने रिक्शों पे सोते थे
और ज्यादातर रातों को
उनके सपने नीचे गिर कर टूट जाते थे
और तब उनकी जरूरतें ज्यादा रोती थीं

***

Saturday, October 31, 2009

अब क्या शहर और क्या गाँव !!

शहर
या तो
अलग – अलग क़तारों में
ख़ड़ा है
बंटा हुआ,
या
फिर उपस्थित है
दौड़ता हुआ
भागदौड़ क़ी परिधि पे,
अपनी पूरी थकान के बाबजूद

कुछ शहर जाने जाते हैं नहीं सोने के लिए
और कुछ कतार में भी दौड़ने के लिए

शहर को मैने
कभी फुरसत में नही देखा
ना हीं कभी एकजुट.

बहुत बड़ी-बड़ी कतारें
उपस्थित हैं
बहुत छोटी-छोटी जगहों में
जगह के बीच से
जगह निकालते हुए

एक टूटते हुए और
दूसरे बनते हुए कतार के बीच के
अंतराल को आप छू नही सकते
और ना हीं कतार बदलने वाले को

जरा सा भी असावधानी
आपको बे-कतार कर सकती है
और फिर आप किसी भी कतार के शिकार हो सकते हैं

बिना कतार का आदमी
बड़ी मुश्किल से मिलता है
और अक्सर मुश्किल में मिलता है

Saturday, August 8, 2009

कुछ होता था...

मैंने सिगरेट पीनी छोड़ दी थी
मेरे दुःख अब धुएँ में नही बदलते थे

बातों का सिलसिला मेरे हाथों टूट गया था
मेरे हाथ में तभी से मोच आ गई थी

शहर में रोने की कोई जगह नही थी
शहर में रोने पर कर्फ्यू था

मैं अपने दोस्त की माँ से मिलता था
अक्सर मुझे माँ याद आती थी
मेरी माँ में मुझे जो माँ के अलावा था,
वो दिखाई दे जाता था

उस तक पहुँचने के लिए एक सड़क काफ़ी नही थी
वो एक बदलती हुई मंजिल थी

कांपती रात के किनारे पे वक्त मुझे
देर तक बिठाये रखता था
और फ़िर सवेरे में धकेल देता था

मैंने सारे हाथ छोड़ दिए थे
उसका हाथ थामने के लिए
अब कोई चारा नही था, गर वो छलावा थी