Saturday, January 9, 2010

हमारे बीच केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है!

*
थोडी देर वो
दस्तक देती रही
बंद बदन पर

फिर इन्तेज़ार किया थोडा
खुलने का

फिर दी दस्तक
फिर इन्तेज़ार किया

और आखिरकार बैठ गयी
बदन के चौखटे पे

बदन, अक्सर रूहों की नहीं सुनते!


**
स्वप्नों की
सारी नमी सोख ली
वक़्त ने

सूखे सपने रगड़ खा कर
एक दिन जला गए
सारी नींद.


***
घडी भर की मुलाकात में
वो जो
दे जाती है

उसका न कोई नाम है
उसके लिए न कोई शब्द है
और न हीं
किसी भाषा में
उसका अनुवाद संभव है।


****
न चाहते हुए भी
मैं रचता हूँ वही आकार
जो तुम लिए हुई हो

न चाहना इसलिए,
क्यूंकि
हमारे बीच
केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है


*****
तुम कुछ देर और गर
अपनी ऋतुओं से ढके रखती
तो
मैं बच सकता था

वो शायद
एक जन्म की बात और थी बस।


*******

समय कठिन हो जाएगा
जर्रा-जर्रा खिलाफत पे उतर जायेगा
विपदाएं जाल बुन देंगी हर तरफ

मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा

27 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

बढियां.

Mithilesh dubey said...

खूबसूरत एहसास ।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

सिर्फ एक शब्द कहूँगा.... कि..... आप हमेशा निशब्द कर देते हैं......


कल यहाँ लखनऊ में आपकी बहुत तारीफ़ सुनी.... और हुई...... पूरी रिपोर्ट फोन पर देता हूँ......

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

खालिश कविता।
रूह का बदन के चौखटे पर बैठना, तब जब कि वह दस्तक पर कोई प्रतिक्रिया न दे रही हो ! कैसी किंवाड़ है महाशय?
क्या कह गए !

नीरज गोस्वामी said...

बदन अक्सर रूहों की नहीं सुनते...

लाजवाब रचना...वाह...
नीरज

समयचक्र said...

अच्छी रचना .... बधाई .

Unknown said...

KHUSHBOO SEE.....PHAIL GAYI...

vandana gupta said...

om ji

hamesha ki tarah har rachna bejod hai........kis kis ki kin shabdon mein tarif karoon samajh nhi aa raha........sab shabd chote lag rahe hain.......baar baar padhne ko dil kar raha hai......na jaane dil ke kis kone se shabdon ka toofan uthta hai aur yun aakar thahar jata hai jaise kuch huaa hi na ho.......kuch aise jazbaat dal diye hain.

निर्मला कपिला said...

थोडी देर वो दस्तक देती रही
बन्द बदन पर
वाह बहुत सुन्दर
सपनों की
सारी नमी
सोख ली वक्त ने
ओम जी किस किस पँक्ति की तारीफ करूँ आपकी रचना दिल तक उतर जाती है कई दिन बाद आने के लिये क्षमा चाहती हूँ। बहुत सुन्दर कविता है बधाई और शुभकामनायें

मनोज कुमार said...

बेहतरीन। लाजवाब।

Yogesh Verma Swapn said...

OM JI SABHI RACHNAYEN "ANUPAM".WAH WAH WAH............

वाणी गीत said...

बदन अक्सर रूह की नहीं सुनते ...प्रेम अध्यात्मिक ही सर्वश्रेष्ठ है ....
घडी भर की मुलाकात क्या क्या नहीं दे जाती ....बस अनुभव किया जा सकता है ..!!

vijay kumar sappatti said...

om ji ,

aapki kavita ne nishabd kiya hua hai ..jaise kuch meetha khaane ke baad bahut der tak uska swaad bana rahta hai .. waise hi kuch aapki kavita padhne ke baad lag raha hai.. badhai sweekar kare.

vijay

अपूर्व said...

सारी की सारी बेजोड़ क्षणिकाएं..एक से एक..और मेरी सबसे पसंदीदा है आखिरी वाली..

मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा

हर दैवीय प्रेमकथा का वक्त इम्तहान लेता है..और समय से परे वही कथाएं जाती हैं जो हर अग्निपरीक्षा मे खरी उतरती हैं..और यहाँ पुल ढह जाने का एक और अर्थ भी हो सकता है..वह यह कि जो इतनी बाधाओं के बावजूद मिलने के लिये आने मे सफ़ल हो सकता है..यही बाधाएं फिर उसे वापस जाने से भी रोक लेती हैं..

Razi Shahab said...

behtareen

गौतम राजऋषि said...

बदन की इस अनूठी दस्तक के बहाने क्या कुछ कह दिया ओम साब...अद्‍भुत बिम्ब!

Sonalika said...

behtreen

suchn nishabd ho gai mai

अजय कुमार said...

गहरे भाव ,बेहद शानदार रचना

Pawan Kumar said...

क्या खूब अलफ़ाज़ और एहसासों का ताना बना बुना है आपने......!
बस यही कहूँगा लाजवाब है हमेशा की तरह.

सागर said...

कैसे - कैसे सीन हैं यहाँ .. गज्ज़ब... अबकी मूड मैं हो आप

RAJNISH PARIHAR said...

आपका भी जवाब नहीं...!

वन्दना अवस्थी दुबे said...

कमाल के प्रतिमान, गज़ब का ताना-बाना..

शरद कोकास said...

सुन्दर प्रेम कविता

डिम्पल मल्होत्रा said...

कही पुल बने ही नहीं और कही ढह भी गये.

Ashok Kumar pandey said...

बहुत ही उत्कृष्ट भाषा

Anonymous said...

मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा
लाजवाब - ऐक सेर तो अगली सवा सेर

aa said...
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