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थोडी देर वो
दस्तक देती रही
बंद बदन पर
फिर इन्तेज़ार किया थोडा
खुलने का
फिर दी दस्तक
फिर इन्तेज़ार किया
और आखिरकार बैठ गयी
बदन के चौखटे पे
बदन, अक्सर रूहों की नहीं सुनते!
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स्वप्नों की
सारी नमी सोख ली
वक़्त ने
सूखे सपने रगड़ खा कर
एक दिन जला गए
सारी नींद.
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घडी भर की मुलाकात में
वो जो
दे जाती है
उसका न कोई नाम है
उसके लिए न कोई शब्द है
और न हीं
किसी भाषा में
उसका अनुवाद संभव है।
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न चाहते हुए भी
मैं रचता हूँ वही आकार
जो तुम लिए हुई हो
न चाहना इसलिए,
क्यूंकि
हमारे बीच
केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है
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तुम कुछ देर और गर
अपनी ऋतुओं से ढके रखती
तो
मैं बच सकता था
वो शायद
एक जन्म की बात और थी बस।
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समय कठिन हो जाएगा
जर्रा-जर्रा खिलाफत पे उतर जायेगा
विपदाएं जाल बुन देंगी हर तरफ
मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा