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Saturday, March 26, 2011

कुछ किया जाए कि कविता को सहारा हो

समझा जाए किसी कविता को ठीक कविता हीं की तरह, कोई भी कविता इससे ज्यादा और क्या चाहेगी और कवि को भी इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहना चाहिए। मौन में उसके उतर कर, कान लगा कर सुनी जाए उसकी आवाज। वो कहे रोने को तो जरूर रोया जाए, उसका तड़पना महसूस किया जाए और जरूरत हो तो तड़पा जाये साथ उसके। कुछ किया जाए कि कविता को सहारा हो। कविता में अगर आग है, तो आप कहीं से भी हो, आग जरूर लायें और तपायें अपनी आग को कविता की आग में। कविता को झूठ न समझा जाए, न हीं उसे जोड़ कर देखा जाए कवि के शब्दों से। कविता के अपने शब्द होते हैं, नितांत अपने और अगर आप उन्हें जला भी दें तो आवाजें आयेंगीं। दरअसल कविता का लिख दिया जाना कवि द्वारा हार स्वीकार कर लिया जाना है कि अब कविता के बारे में उससे कुछ नहीं किया जा सकेगा और तब जिम्मेवारी आपकी बनती है

Saturday, January 9, 2010

हमारे बीच केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है!

*
थोडी देर वो
दस्तक देती रही
बंद बदन पर

फिर इन्तेज़ार किया थोडा
खुलने का

फिर दी दस्तक
फिर इन्तेज़ार किया

और आखिरकार बैठ गयी
बदन के चौखटे पे

बदन, अक्सर रूहों की नहीं सुनते!


**
स्वप्नों की
सारी नमी सोख ली
वक़्त ने

सूखे सपने रगड़ खा कर
एक दिन जला गए
सारी नींद.


***
घडी भर की मुलाकात में
वो जो
दे जाती है

उसका न कोई नाम है
उसके लिए न कोई शब्द है
और न हीं
किसी भाषा में
उसका अनुवाद संभव है।


****
न चाहते हुए भी
मैं रचता हूँ वही आकार
जो तुम लिए हुई हो

न चाहना इसलिए,
क्यूंकि
हमारे बीच
केवल मेरा प्रेम उभयनिष्ठ है


*****
तुम कुछ देर और गर
अपनी ऋतुओं से ढके रखती
तो
मैं बच सकता था

वो शायद
एक जन्म की बात और थी बस।


*******

समय कठिन हो जाएगा
जर्रा-जर्रा खिलाफत पे उतर जायेगा
विपदाएं जाल बुन देंगी हर तरफ

मैं जानती हूँ
जब वह आने को होगा
शहर को जोड़ता
मेरे कस्बे का एकमात्र पुल ढह जायेगा