Monday, February 23, 2009

जुगलबंदी

तुम्हारी जुगलबंदी में
अक्सर बन जाती है कोई धुन

तुम्हारे साथ होना
मध्य रात्रि से थोड़ा पहले,
जब सारे स्वर शांत हो गए होते हैं,
राग मालकौंस के साथ होने जैसा है

तुम्हारे विशाल आगोश में
एक मुलायम धुन बहती है
और उसपे बहता है मेरा नाजुक सा एक ख्याल

तुम्हें जब से सुना है
तब से ,
तुम्हें छोड़ कर
कुछ भी सुनना व्यर्थ लगता है

तुम्ही तो हो सबकुछ मेरे अब
ओ मेरी तन्हाई
मेरे अकेलेपन , खालीपन
मेरा सन्नाटा।

आओ अपनी बाजुओं में फ़िर से ले लो मुझे

Sunday, February 22, 2009

जहाँ कोई मौसम नही होता !

(किसी ने कहा की कुछ लोग हीं बे-मौसम होते हैं, उसकी इस बात से ताल्लुक रखते हुए...)

जैसे बे-मौसम आंधियां होती है,
ओले पड़ते हैं
या फ़िर बे-मौसम बरसात होती है
ठीक वैसे हीं
कुछ लोग भी बे-मौसम होते हैं
जो, अपने काल और स्थान से चूक गए होते हैं

सारे ग्रह, राशियां , नक्षत्र और गोचर आदि
अपने जगह से हिल जाती हैं
इक जरा सा गर
रूहें चूक जाती है मौका

फ़िर न वो बदन मिलता है
और ना हीं वो मौका दुबारा फ़िर
एक लंबे समय तक

अपनी नियत देह से बिछुडी
ये रूहें
किसी और देह में अपना उम्र काटती है
कभी मंगल दोष से पीड़ित,
कभी राहू-केतु के चपेटे में
मगर नही मिल पाता उन्हें कभी
शीतल चंद्र का पनाह

वे तमाम उम्र रह जाते हैं यूँ हीं बे-मौसम
उनका मौसम कभी नही आता
वे बस इंतज़ार करते रहते हैं अगले जनम का

Thursday, February 19, 2009

बहुत सारा मटमैला बादल

शाम के इस भूरे बदन से
आ-आकर टकरा रही हैं बार-बार
पूरी गति से,
कई तरह के रेतीले भावों से सनी।

मटियामेट कर रही हैं एक के बाद एक, सारी ख्वाहिशें

आज नही रुकेंगी ये लहरें ....

अभी से कुछ देर पहले हीं
वो पोत गया है
डूबते सूरज के चेहरे पे बहुत सारा मटमैला बादल

तोड़ कर बंधन,
छोड़ कर बरसों से थामा हुआ हाथ
वो चला गया है

टूटे रिश्ते की किरचियाँ सारी पानी में बह गई हैं

वो सारा बरसों से बदन पे जमा स्पर्श
रेत में तब्दील हो गया है
और ह्रदय की मुठ्ठी से फिसल रहा है

सब बह गया है,
टूट गया है, बिखर गया है एकबारगी

कांपते हाथों से
वो ढूंढ रही है कोई नज्म कि जिसकी पनाह में
अपने बिखरे शब्द डाल दे.
और मुक्त हो
मुक्त हो एक और रिश्ते से.

Wednesday, February 18, 2009

आभार !

कहते हैं एक बीज से सारी दुनिया हरियाली से आच्छादित की जा सकती है, एक बीज की संभावना इतनी विशालहैपर अगर बीज, के अंकुरन के लिए हवा, पानी, मिट्टी ना मिले तो बीज, बीज हीं रह जाता है

मैं इतना विशाल तो नही कि पृथ्वी का एक अंश भी आच्छादित कर सकूं, पर मुझे इस रूप में खोजने का श्रेय मेरेबड़े भाई, जो ख़ुद कविता की दुनिया से गहरा ताल्लुक रखते हैं - सिर्फ़ उनका रस अलग है, को जाता हैउनकानाम बसंत आर्य है और वे
ठहाका
पे पढ़े जा सकते हैं. ये ब्लॉग उन्ही का बनाया हुआ है, उन्ही ने आप तक मुझे पहुँचाया है और मुझे भी आप तकपहुँचने का रास्ता बताया है

इन सबके पहले मुझे ये बता देना जरूरी लगता है कि मेरे पिताजी भी लिखते थे (अब नही लिखते), निश्चय ही इस बीज की सम्भावना वहीँ से आई है।

मैं यह भूमिका इसलिए पेश कर रहा हूँ क्यों कि मुझे आप सबसे लगातार मिलते रहने वाले हौसले के लिए और आप सबकी रचनाओं के लिए-जो मेरे पौध के लिए खाद का काम करती हैं-आप सब का शुक्रिया अदा करना है। मगर आप ये मत मान लेना कि ये किसी तरह कि कर्ज अदायगी है। कर्ज तो रहेगा हीं आपका।
आभार !
आप सबका
सैयद, वंदना समीर सृज़न डॉ अनुराग रंजना MUFLIS महावीर रंजना [रंजू भाटिया] विवेक विनय Harkirat Haqeer Parul
MANVINDER भिम्बर मीत परमजीत बाली हिमांशु अनिल कान्त Udan Tashtari इष्ट देव सांकृत्यायन संगीता पुरी कंचन सिंह चौहान महाशक्ति नीरज गोस्वामी pallavi trivedi

और भी कुछ लोग हैं जिनका जिक्र यहाँ नही हो पाया है पर वो हैं और रहेंगे मेरे हौसले का हिस्सा बनकर.


Sunday, February 15, 2009

एक पुनर्वास की जरूरत सभी को है

मौसम विस्थापित हो गए हैं
और मौसम के साथ-साथ एहसास भी

कोयल की कूक, मोर का नाच
सरसों का फूलना, आम का मंजराना...
गोभी की सब्जी और गेंदे के फूल जाड़े में
गर्मी में आंधी, जाड़े में ओले
और बारिश में बारिश ...
और अमावस के दिन घुप्प अँधेरा

आदमी का मुस्कुराना
औरत के जूडे में बेली का खिलना
ऑफिस से लौटते समय आंखों में अक्सर वसंत लाना
साँसों की छुअन से तार का बजना
मान जाने के लिए रूठना

मौसम और एहसास में से कोई भी अपने जगह पे नही
सभी को पुनर्वास की जरूरत है.

उबासी लेते लम्हें

कहीं से भी, कभी भी
चली आती है वो और
पालथी मार कर बैठ जाती है
घड़ी की सुइओं पर

वक्त कुछ देर तक दमघोंटू गले से
टिक टिक करता रहता है
और फ़िर बंद हो जाता है आखिरकार

खूब सारा समय इकठ्ठा हो जाता है
खत्म नही होते दिन
लाख भटकने पे भी
और रात भी मुंदी पलकों के नीचे जागती रहती है

लम्हें बैठे बैठे
उँगलियाँ फोड़ते रहते हैं
पर पोरों से
तेरे न होने का दर्द जाता नही

बहुत देर तक जब बैठी रह जाती है तन्हाई
घड़ी की सुइओं पर
और
पृथ्वी नही घूम पाने की वजह से
बेचैन हो जाती है
तो सिगरेट के बहाने सुलगा लेता हूँ
थोड़ा सा वक्त

काट लेता हूँ थोड़ा सा वक्त
सिगरेट के साथ और तुम्हारे बगैर

फ़िर सोंचता हूँ
सिगरेट के तुम्हारे स्थानापन्न हो जाने के बारे में
और फेंक देता हूँ उसे।

आज समय फिर सुबह से हीं बंद पड़ा है
पर मैंने नही सुलगाई एक भी सिगरेट.

Thursday, February 12, 2009

बहरा आसमान !

चाँद ने,
लगाई बिंदी माथे पे
ओढे गहने और कपड़े
मेंहदी लगे हाथो में पहने कंगन
मन पे, पहले का सारा पहना हुआ
उतार दिया
और सूरज की लपटों के सात फेरे ले लिए

खामोश लबों पे उठती हुई टीस
और कंठ में रुकी हुई हूक
अनसुनी कर दी गई थी पहले हीं

बहरा आसमान !

Sunday, February 8, 2009

शायद जख्म हीं खुराक है मेरी!

जहाँ से भी मिला
जिस भी बदन से
उठा के लाद लिया अपने बदन पे

अब ठीक से याद भी नही
कहाँ से उठाया
किस बदन से कब

इकठ्ठा करता रहा,
आलमारी और रैक भर गए जब
तो दीवान खरीद लिया
अब उनके ऊपर हीं सोता हूं।

आज की तारीख में
ये तय करना मुमकिन नही कि
कौन सा जख्म तो अपने बदन का है और कौन
कहीं से उठाया हुआ
समय के साथ सबका चेहरा एक सा हो गया है
पूरी तरह गड्ड-मड्ड
और फ़िर इतने दिन अपने घर में
रखने के बाद तो
सब अपना हीं लगता है


बहुत बार की है कोशिश कि
किसी पोटली में बाँध कर
दूर फेंक आऊं इन्हें
और पूरी तरह बेजख्म हो जाऊं


प्रण भी किया है कई बार कि
इन जख्मों को उतार के हीं रहूँगा
पर ये मुमकिन नही...

मुमकिन नही क्यूँ कि
शायद जख्म हीं खुराक है मेरी
जख्म खा के हीं जिन्दा हूं !

Friday, February 6, 2009

ख्याल टूटे हुए से

दुःख पे पाँव अगर पड़ जाए
तो दुख बिदक कर काट लेते हैं ।

नज्में सब पीलीं पड़ गई हैं
जाने कब की ये किताब है।

तुम्हारे मन में उमस है, इसलिए
मुझ तक आने के रास्ते सारे चिपचिपे।

अब बस मैं एक रूह हूँ
जीने के लिए बदन उतारने पड़े।

हमने अपना एक जिस्म बनाया है
अब बस एक रूह की आरजू है।

आंखों ने छितकिनी चढा ली है
नींद -ख्वाब सब बाहर।

अभी अभी फ़िर से कोई ख्याल टूटा है
चटखने की आवाज फ़िर से आई है

Thursday, February 5, 2009

तेरी बातों के बिना...

बहुत तेज सन्नाटा है !

सारी आवाजों को दबाए बैठा है
किसी बर्बर तानाशाह की तरह

होंठ के भीतर हीं ,
ये आवाजें,
गले के ठीक नीचे तक भरी
कोई फडफडा रही है , कोई बौखला रही है ,
कोई घुमड़ रही है किसी गुबार की तरह
कोई थक के शांत बैठ गई है

ये दबी हुई आवाजें,
जिनका कि शक्ल अब शोर के जैसा है,
जब बौखलाहट बहुत बढ़ जाती है
हिचकियाँ बन के निकलती हैं
थोड़ा-थोड़ा
सन्नाटे के कान बचाती हुई।

Monday, February 2, 2009

इजहार

(कुछ कवितायें बार-बार सच होती है...)

लब्ज सुन लिए गए थे ...

कायनात की सारी आवाजों ने
उन तीन लब्जों के लिए
सारी जगहें खाली कर दी थी

होंठों पे सदियों से जमा वजन
उतर गया था

उसके भीतर कोई नाच उठा था
जो नाचता हीं जा रहा था लगातार
लगातार...