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Sunday, February 15, 2009

उबासी लेते लम्हें

कहीं से भी, कभी भी
चली आती है वो और
पालथी मार कर बैठ जाती है
घड़ी की सुइओं पर

वक्त कुछ देर तक दमघोंटू गले से
टिक टिक करता रहता है
और फ़िर बंद हो जाता है आखिरकार

खूब सारा समय इकठ्ठा हो जाता है
खत्म नही होते दिन
लाख भटकने पे भी
और रात भी मुंदी पलकों के नीचे जागती रहती है

लम्हें बैठे बैठे
उँगलियाँ फोड़ते रहते हैं
पर पोरों से
तेरे न होने का दर्द जाता नही

बहुत देर तक जब बैठी रह जाती है तन्हाई
घड़ी की सुइओं पर
और
पृथ्वी नही घूम पाने की वजह से
बेचैन हो जाती है
तो सिगरेट के बहाने सुलगा लेता हूँ
थोड़ा सा वक्त

काट लेता हूँ थोड़ा सा वक्त
सिगरेट के साथ और तुम्हारे बगैर

फ़िर सोंचता हूँ
सिगरेट के तुम्हारे स्थानापन्न हो जाने के बारे में
और फेंक देता हूँ उसे।

आज समय फिर सुबह से हीं बंद पड़ा है
पर मैंने नही सुलगाई एक भी सिगरेट.

Thursday, February 12, 2009

बहरा आसमान !

चाँद ने,
लगाई बिंदी माथे पे
ओढे गहने और कपड़े
मेंहदी लगे हाथो में पहने कंगन
मन पे, पहले का सारा पहना हुआ
उतार दिया
और सूरज की लपटों के सात फेरे ले लिए

खामोश लबों पे उठती हुई टीस
और कंठ में रुकी हुई हूक
अनसुनी कर दी गई थी पहले हीं

बहरा आसमान !

Thursday, February 5, 2009

तेरी बातों के बिना...

बहुत तेज सन्नाटा है !

सारी आवाजों को दबाए बैठा है
किसी बर्बर तानाशाह की तरह

होंठ के भीतर हीं ,
ये आवाजें,
गले के ठीक नीचे तक भरी
कोई फडफडा रही है , कोई बौखला रही है ,
कोई घुमड़ रही है किसी गुबार की तरह
कोई थक के शांत बैठ गई है

ये दबी हुई आवाजें,
जिनका कि शक्ल अब शोर के जैसा है,
जब बौखलाहट बहुत बढ़ जाती है
हिचकियाँ बन के निकलती हैं
थोड़ा-थोड़ा
सन्नाटे के कान बचाती हुई।

Tuesday, November 18, 2008

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं


बहुत थोड़े से दिन,

जब कुहरे में डुबे रहेंगे
ये गलियाँ, सड़कें
ये समय।

आर पार देखने के लिए
सूरज को आँखें फाडनी पड़ेगी,
नही सूझेगा
शहर का पुराना घंटाघर,
दूर-दूर तक नजर नही आएंगे
ये खिलखिलाते चटकदार दृश्य ,
दांत भींचे
ऊँकरू बैठी रहेगी सिगड़ी
और चाय के लिए
धोई जाने वाली पतीली
दांत कटकटाती सुनाई पडेगी

पेंड़ क़ी शाखों से टप- टप झड़ता रहेगा एकांत,
अल सुबह और शाम
उचाट उदासी पसरी रहेगी सड़कों पर,
और घड़ी-घड़ी हाथ रगड़ते नजर आएंगे
रिक्शे-तांगे वाले

इन सबके बाबजूद
मुझे इंतेज़ार है
उन कुहरे वाले दिनो का
क्यों कि तुमने कहा है कि
उन दिनो तुम मेरे शहर में रहोगी।

मैं बहुत खुश हूँ कि
अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैंजब तुम मेरे शहर में रहोगी।

Wednesday, November 12, 2008

गुमान

इबारतें तुम्हारी, उगती रहती हैं
मेरे कान टिके रहते हैं उन पर

ये इबारतें,
जो तुम्हारे फिर फिर अंकुरित होने के
निशान हैं,
गुमान है मेरे लिए
कि तुम हरे हो अब तक
कि तुम्हारी इबारतों में मेरी नमी का जिक्र होता रहता है
कि तुम कहते होसब मेरी नमी की बदौलत उगता है

हालांकि तुम्हारी डायरी के पन्ने
नही छुए मैने एक अरसे से,
एक अरसा हुआ उनकी फड़फड़ाहट गये कानो में,
पर,
कहाँ भूल पाई हूँ
उन पुरानी इबारतों को भी
जो तब लिखे थे तुमने

और तुम्हे बता दूँ
आज भी वे बोलती हैं
तो बदन पे हर हर्फ उभर जाता है

पर,
हम जितना हीं जी पाए
उन लम्हों को,
जितनी देर हीं ख्वाहिशों को खिलाया
हमने अपनी हथेली पर,
जो भी हासिल हो पाया हमे
तुम्हें बार-बार अंकुरित करने के लिए
और मेरे बदन पे हर्फ उभारने के लिए
काफी है.
है ना!!!