Tuesday, November 18, 2008

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं


बहुत थोड़े से दिन,

जब कुहरे में डुबे रहेंगे
ये गलियाँ, सड़कें
ये समय।

आर पार देखने के लिए
सूरज को आँखें फाडनी पड़ेगी,
नही सूझेगा
शहर का पुराना घंटाघर,
दूर-दूर तक नजर नही आएंगे
ये खिलखिलाते चटकदार दृश्य ,
दांत भींचे
ऊँकरू बैठी रहेगी सिगड़ी
और चाय के लिए
धोई जाने वाली पतीली
दांत कटकटाती सुनाई पडेगी

पेंड़ क़ी शाखों से टप- टप झड़ता रहेगा एकांत,
अल सुबह और शाम
उचाट उदासी पसरी रहेगी सड़कों पर,
और घड़ी-घड़ी हाथ रगड़ते नजर आएंगे
रिक्शे-तांगे वाले

इन सबके बाबजूद
मुझे इंतेज़ार है
उन कुहरे वाले दिनो का
क्यों कि तुमने कहा है कि
उन दिनो तुम मेरे शहर में रहोगी।

मैं बहुत खुश हूँ कि
अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैंजब तुम मेरे शहर में रहोगी।

No comments: