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Sunday, February 15, 2009

उबासी लेते लम्हें

कहीं से भी, कभी भी
चली आती है वो और
पालथी मार कर बैठ जाती है
घड़ी की सुइओं पर

वक्त कुछ देर तक दमघोंटू गले से
टिक टिक करता रहता है
और फ़िर बंद हो जाता है आखिरकार

खूब सारा समय इकठ्ठा हो जाता है
खत्म नही होते दिन
लाख भटकने पे भी
और रात भी मुंदी पलकों के नीचे जागती रहती है

लम्हें बैठे बैठे
उँगलियाँ फोड़ते रहते हैं
पर पोरों से
तेरे न होने का दर्द जाता नही

बहुत देर तक जब बैठी रह जाती है तन्हाई
घड़ी की सुइओं पर
और
पृथ्वी नही घूम पाने की वजह से
बेचैन हो जाती है
तो सिगरेट के बहाने सुलगा लेता हूँ
थोड़ा सा वक्त

काट लेता हूँ थोड़ा सा वक्त
सिगरेट के साथ और तुम्हारे बगैर

फ़िर सोंचता हूँ
सिगरेट के तुम्हारे स्थानापन्न हो जाने के बारे में
और फेंक देता हूँ उसे।

आज समय फिर सुबह से हीं बंद पड़ा है
पर मैंने नही सुलगाई एक भी सिगरेट.

Tuesday, November 18, 2008

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं

अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैं


बहुत थोड़े से दिन,

जब कुहरे में डुबे रहेंगे
ये गलियाँ, सड़कें
ये समय।

आर पार देखने के लिए
सूरज को आँखें फाडनी पड़ेगी,
नही सूझेगा
शहर का पुराना घंटाघर,
दूर-दूर तक नजर नही आएंगे
ये खिलखिलाते चटकदार दृश्य ,
दांत भींचे
ऊँकरू बैठी रहेगी सिगड़ी
और चाय के लिए
धोई जाने वाली पतीली
दांत कटकटाती सुनाई पडेगी

पेंड़ क़ी शाखों से टप- टप झड़ता रहेगा एकांत,
अल सुबह और शाम
उचाट उदासी पसरी रहेगी सड़कों पर,
और घड़ी-घड़ी हाथ रगड़ते नजर आएंगे
रिक्शे-तांगे वाले

इन सबके बाबजूद
मुझे इंतेज़ार है
उन कुहरे वाले दिनो का
क्यों कि तुमने कहा है कि
उन दिनो तुम मेरे शहर में रहोगी।

मैं बहुत खुश हूँ कि
अब बहुत थोड़े से दिन बचे हैंजब तुम मेरे शहर में रहोगी।

Monday, October 13, 2008

बातें जगह घेरती हैं



बातें आती हैं जाती हैं पर खत्म नही होतीं
ढूँढती रहती है अफ़सानों में अपनी जगह
खोलती रहती हैं पुरानी सन्दुकेन
यादों की पुरानी जंग लगी तहें.

बातें दूर तक साथ जाती हैं
गर उन्हें किसी नम रसीले गले का सहारा मिल जाता है
गर किसी अहसास के साथ उन्हें किसी अफ़साने में जगह दे दी जाती है.

पर आवाज़ और अफ़साने की गैर हाज़िरी में भी वे
अपने पूरे वजूद के साथ जिंदा रहती है
और वक़्त बे-वक़्त हमें सराबोर करती रहती है

बातों का वजूद हमारे अडोस पड़ोस में हमेशा जगह घेरती है