Sunday, December 13, 2020

टमाटर का शोरबा

मैं बारिश होता हूं जो 
तो वह बाढ़ हो जाती है
इस लिए नहीं कि वह मुझे बहा ले जाए
बल्कि इसलिए कि मेरे पानी के लिए कोई रास्ता हो
उसके लिए 
भीगने के 
कुछ अलग ही मायने हैं

दिन हफ्ते और महीने में 
लगभग अनगिनत बार  
वह छू लेती है 
अपनी भरी आंखों से 
मेरी मिट्टी को
जहां उसने 
एक के बाद एक पौधे लगाते हुए 
लगभग सब कुछ हरा कर दिया है
मटमैले, पीले और उदास से रंगों को काट-छांट कर

उतना आह्लादित होते हुए 
मैंने नहीं देखा किसी को कभी
किसी पहाड़ को भी नहीं जब वह जगता है सुबह-सुबह 
किसी नदी को भी नहीं जब वह लगने को होती है सागर के गले
या फिर किसी घास को हल्की बारिश के बाद
जितना कि 
वह हो जाती है एक पौधा रोप कर
मेरे इर्द-गिर्द

कुछ एक वाहियात चीजों के खातिर
मुझसे लड़ी जाने वाली लड़ाइयां
उसके लिए
मेरी ख्वाहिशों को 
अपने लिविंग रूम में 
करीने से सजा कर रखने का बस एक तरीका भर है जहां मेरा बैठना उसका सुकून हो

उसके बेतरतीब होने में एक तारतम्य है 
यहां वहां बिखरी-बिफरी चीजें भी 
मिनटों में कब करीने से लग जाती हैं
मैं नहीं समझ पाता

थाप उल्टे सीधे जैसे भी पड़े
सुर सध जाते हैं, मंच सज जाता है
और हर बार बेहतरीन प्रदर्शन
और फिर तालियों की गड़गड़ाहट से भरा
चमचमाता चेहरा
अपने आईने में बार-बार देखती है

वह अपने दिन भर की अपनी चहलकदमी से
घर की दीवारों को गर्म रखती हैं
और बाहर की हवाओं को साफ
होती हुई शाम में
वह दीए की रोशनी हो जाती है
जहां मंत्रोच्चार और घंटियों की आवाजें हैं 

जाड़े की किसी रात को वह पकाती जा रही है टमाटर का शोरबा
और मैं पढ़ता जा रहा हूं
उसमें कविताओं का स्वाद!


Monday, November 30, 2020

यह उनकी कामयाबी का वक्त है!

वे जान गए थे 
कि सही गलत कुछ नहीं होता
असल बात उसे साबित करना होता है 

और इसी क्रम में 
वे यह भी जानते थे 
कि सही को गलत साबित करने और गलत को सही साबित करने के तरीके होते हैं  जिन्हें सीखना होता है

उन्होंने इतिहास से सीखा 
कि इतिहास कैसे बनाया और बदला जाता है 
उन्होंने बाजार से सीखा भावनाओं के  इस्तेमाल से चीजों को कैसे अच्छे से बेचा जा सकता है 
उन्होंने अनुसंधान से सीखा
तथ्यों को उलटने पलटने की संभावना के बारे में
और  मानविकी विज्ञान से कि कैसे दृष्टिकोण से खेला जा सकता है

उन्होंने
पंचतंत्र की ब्राह्मण, बकरी और तीन ठग वाली कहानी को ठीक तरह से पढ़ लिया था थे और उन्हें पता चल गया था बार-बार दोहराने के विधा के बारे में

वे इस बात को भलीभांति समझ गए थे कि अगर गांधी कोई बात बोलेंगे तो लोग उसे सच ही मानेंगे
और फिर उन्होंने झूठ को बोलने के लिए  गांधी तैयार किए 
और जो तैयार नहीं हुए उन्हें झूठा साबित कर दिया और कहा कि वे दुर्भावना से प्रेरित हैं

अब वही सच है जो वह बोलते हैं कि सच है
झूठ भी वही जिसे वो झूठ बोलते हैं

यह उनकी कामयाबी का वक्त है!

Saturday, November 28, 2020

सामने वाले खुद से लड़ते हुए

खुद से लड़े हो कभी, कभी खुद पर वार किया है
खुद से जीते हो कभी खुद को हराकर
अपना लहू कैसा है मालूम है क्या तुमको
चीर कर देखा है क्या खुद को कभी?

उन्हें कमजोर मत समझो जो शांत दिखाई देते हैं 
कभी यह भी मत मान लेना 
कि जो शांत है वह कम लड़ाका होगा
कि जो शांत है उसे कभी भी हराया जा सकता है

ऐसे कुछ लोगों को मैं जानता हूं 
वे अक्सर लड़ रहे होते हैं अपने भीतर कोई लड़ाई
और लहू बस खत्म होने वाला होता है
वहां बोल कर लहू को व्यर्थ बर्बाद करने की गुंजाइश नहीं होती

भीतर की खुद से लड़ाई को बाहर के शोरगुल से बचाना जरूरी होता है
जीतने के लिए करनी पड़ती है सतत लड़ाई
इस विचार को कि खुद से लड़ना व्यर्थ है पटकनी देनी पड़ती है बार-बार
उसके लिए
गहरे उतर कर बनाई जाती है रणनीति युद्ध की
नहीं तो सामने वाले खुद को सब पता चल जाता है

खुद से लड़ने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए होती है
कुछ मत बोलो, चुप रहो 
जब तक कि तुम नहीं
कूद पड़ते हो अपनी खुद की लड़ाई में.
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Thursday, November 26, 2020

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

Inspired by poem of Vinod Kumar Shukla ji (link given below)

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
उस व्यक्ति को जानने वाले सभी लोग अभी भी चले जा रहे थे
उसके लिए कोई नहीं रुका 
और ना ही उसके पास गया
कि वह उसका हाथ पकड़कर खड़ा हो चले

काफी देर बाद किसी तरह
वह खुद खड़ा हुआ और जाने लगा
चलते चलते उसने देखा 
एक और व्यक्ति को हताशा में बैठे हुए
वह उसके पास जाकर बैठ गया
उसे वह बिल्कुल नहीं जानता था

थोड़ी देर बाद 
दोनों साथ उठे और साथ चले

 वे अब तक हताशा को जान चुके थे

और हताशा में हाथ थामने की 
जरूरत को जान चुका थे
साथ चलने की अहमियत को जान चुके थे
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विनोद कुमार शुक्ल जी की यह छोटी सी कविता कितनी बड़ी है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.

Friday, April 17, 2020

महामारी में मरने वाले लोग !


महामारी में मरने वाले लोग !
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महामारी में मरने वाले सभी लोग
महामारी से नहीं मरते
उस महामारी से तो बिल्कुल नहीं
जिसे दुनिया के
ताकतवर लोग, संस्थाएं और राष्ट्रअध्यक्ष मानते हैं महामारी
और करते हैं तालाबंदी और नाकेबंदी
महामारी में मरने वाले बहुत सारे लोग
पहले से ही मरते आ रहे होते हैं
और मरते जाते हैं लगातार
अलग-अलग महामारियो की वजह से
पर वे महामारी से मरने वालों में गिने नहीं जाते
क्योंकि दुनिया के ताकतवर लोग नहीं मानते हैं उन्हें महामारी
वे मरते हैं सड़कों पर और घरों में
शोषण और दुराचार की महामारी से
वे मरते हैं भूख, कुपोषण और लाचारी की महामारी से
कुछ मर जाते हैं हताशा की महामारी से और कुछ इंसाफ में देरी की
कुछ मर जाते हैं फुटपाथ पर उन्मादी गाड़ियों के नीचे आकर
और कुछ इसलिए क्योंकि फुटपाथ नहीं होते सड़कों के किनारे
जिन पर उन्मादी गाड़ियां चलती है
वे मरते हैं व्यवस्था का अट्टहास सुनकर
वे मरते हैं सत्ता की हत्यारी मुस्कान से लहूलुहान होकर
कभी ठगे जाने से मर जाते हैं वे
कभी वे मर जाते हैं डर कर
और कभी लड़ते हुए लड़ने की मार से
कई बार
वे मरते हैं ताकत की सत्ता को बनाए रखने
या हथिया लेने की नुकीली अभीप्सा में
नए और खोज कर लड़े जाने वाले युद्धों की वजह से
या फिर
दबा देने की हिंसक खुशी पाने के लिए लड़े गए लड़ाईयों में
कभी वे मरते हैं
सहस्राब्दी विकास के लक्ष्यों में बहुत पीछे छूट कर
और कभी सतत विकास के लक्ष्यों में डूब कर
कभी दंगों में और कभी अपने कपड़ों और वेशभूषा की वजह से भी मरते हैं वे
उनसे कोई नहीं कहता कि तुम मर जाओ
क्योंकि वे जानते हैं कि एक दिन वे
बिना किसी के कहे या किसी को बिना बताए
किसी अदृश्य महामारी से मर ही जाएंगे
वे जानते है कि
महामारी को तभी माना जाता है महामारी
जब उससे मरने का खतरा
खास ताकतवर पर आ जाता है
पर उनमें से कोई भी
यह जानने की वजह से नहीं मरता
वे मरते हैं हर उम्र और हर काल में
कई बार वे एक बार भी जिए बिना मर जाते हैं
उनके माथे पर बेमौत मरने की रेखाएं होती है
भले ही वे मरते हो बेमौत
या उनकी मरने की वजह होती हो भूख जितनी मामूली
वे जीते हैं हमारी ही तरह किसी की मुस्कुराहट पर
किसी की आंखों के पानी के लिए
किसी की गोद में खिलखिलाने के लिए
जहां महामारी का कोई डर नहीं होता




Saturday, February 29, 2020

कविता का शीर्षक आग में जल गया है


तब घरों में
आग जलाने के साधन
बहुत कम हुआ करते थे।

दियासलाई भी बहुत कम घरों में हुआ करती थी।
और वह भी हमेशा नहीं।

हम गांव में
पड़ोस के घरों में
आग मांगने जाया करते थे
ताकि सांझ की रोशनी जलाई जा सके
चूल्हे जलाए जा सके
रोटी पकाई जा सके।

बारिश के दिनों में कई बार
मां कितना परेशान हो जाया करती थी
जब लकड़ियाँ सीली हो जाया करती थी
और आग भी कई घरों में घूमने के बाद
किसी एक घर से मिल पाती थी।

अगली जरूरत के लिए
आग को संभाल कर रखना होता था।
पर मां अक्सर सारा आग बांट दिया करती थी
उसका मानना था
कि आग को बचाए रखने के लिए उसे
बांटना जरूरी होता है
और इसलिए उसे आखरी बचे आग को भी
बांटने में कोई परेशानी नहीं थी।

पाठ्यक्रम में तब
पुरा पाषाण काल में हुए
आग के आविष्कार के बारे में पढ़ना
कितना रोमांचकारी हुआ करता था
और यह सोचना
कि पत्थरों को रगड़ कर आग पैदा करना
कितना मुश्किल होता रहा होगा तब

आज जब आग जलाने के बहुतेरे हैं साधन
और हर तरफ लगाई जा रही है आग
मैं सोचता हूं कि
आग मांगते-बांटते, बचाते-जलाते
यह हम आग लगाने तक कैसे पहुंच गए

क्या पुरा पाषाण काल के लोग
कभी सोच पाए होंगे
अपने आग के आविष्कार के
इस तरह के इस्तेमाल के बारे में
क्या मां जानती रही होगी कि
जो आग वह बचा रही है
वह किसी दिन
किसी का घर जला देगी

कल टीवी पर मां रोती हुई कह रही थी
कि आग में उसका बेटा जल गया है
और बिटिया झुलस गई है
और यह वह आग नहीं जो उसने बचाई थी।