Friday, July 31, 2009

कुछ नज़्में, जो छूट जाती हैं अधूरी !

कुछ ग़ज़लें, कुछ नज़्में
जो उलझ जाती है मकड़जाल में
कुछ बातें, जिन्हे लम्हों की तनी रस्सियों पर चलना होता है
कुछ एहसास और खयाल
जो पिघल कर उतरते नहीं कागज़ पर
किसी भी मौसम में
कुछ चित्र और रंग जिनको आँख में आने की वजह नही मिलती
-----
और इस तरह की कुछ और भी चीजें
जो अधूरी रह जाती हैं
छोटी-छोटी वाहियात वजहों के चलते

हैं मेरे पास बड़ी तादाद में

हालांकि अपने अधूरेपन में पूरी तरह
जिंदा रहना आता है उन्हें
और वे सालों साल से सांस ले रही है मेरे साथ

और धीरे धीरे तो वे पूरी भी लगने लगीं हैं
क्योंकि असलियत में
हम भूल गये हैं उनके अधूरेपन को
और साथ ही साथ
उन्हें पूरा करने की अपनी जबाबदेही को

पर उन्हें भूल जाना
उन चीज़ो को, जो छोटी-छोटी वाहियात वजहों के चलते
अधूरे रह जाते हैं,
उन्हें क्या हमेशा के लिए अधूरा नही छोड़ देता?

Thursday, July 30, 2009

किसी ने जोर से दे मारा है रिश्ता !

बिखरा है यकीन
वफाओं के टुकडे फैले हैं फर्श पर
किसी ने जोर से दे मारा है रिश्ता
फ़िर से दीवार पर

घर का नक्शा फ़िर से तितर-बितर है
घर फ़िर से कोहराम है

मेरे हाथो पे बहुत सारे निशान हैं अब
वैसे जो कटने से बनते हैं

टूटी वफाओं के टुकडे उठाओ तो
हाथ तो कटते हीं हैं

तोड़ने का कारोबार है उनका
और अब मैं भी उसमें शामिल हो गई हूँ.

Wednesday, July 29, 2009

कुछ कोशिशें अपने कदम रोक लेती हैं

कुछ फ़ासले पर कोहरा है थोड़ा
जिसके उस पार जाने की लगातार कोशिश कर रहा है
एक एहसास
पर चीर कर पहुँच नही पा रहा.

जज्बों में धूप शायद उतनी तेज नही

कोहरे के उस पार
जीवन
दरवाजे के पल्ले भिडाये
कमर तक रजाईया लपेटे
इंतेज़ार कर रहा है किसी खटखटाहट का
दरअसल, उसी एहसास के दस्तक का.

सब कुछ कितना आसान सा है
पर नही मालूम क्यूँ
कुछ कोशिशें अपने कदम रोक लेती हैं,
या फिर कदम बढाने में बहुत वक़्त लगता है.

(यहाँ शायद यह बता देना जरूरी है कि ये कविता कभी जाडे के मौसम में लिखी गई थी.)

Monday, July 27, 2009

दोहरी तनहाई में

एक तो अपनी ...
और दूसरी तुम्हारी...
दोहरी तनहाई में जीता हूँ रोज

शायद तुम भी जीती होगी कुछ इस तरह ही

रोज शाम
वे दोनो हीं मिल जाती हैं
समंदर के साहिल के समानांतर बैठी हुई

तुम्हें भी दिखाई दे हीं जाती होगी कभी वे
तुम भी साहिल पे बैठती हीं होगी

तन्हाई हमें साहिल पे हीं तो ली जाती है

वे रहती हैं सूरज डूबने तक वहीं
मैं लौट आता हूँ उन्हें वही छोड कर

तुम्हें भी लौटना होता होगा
अंधेरा होने से पहले

अरसे से हम जी रहे हैं दोहरी तन्हाइयां
अरसे से हमारा जीना बंद है

Saturday, July 25, 2009

फेफड़े भर साँस के लिए

जरा सा भी कमतर नही !

उतना हीं,
और कभी कभी तुमसे ज्यादा
एहसास है मुझे
तुम्हारी रगों में बेचैन लहू का
जो कत्ल होकर
बाहर आ जाना चाहती है
फेफड़े भर अंतिम सांस के लिए

मुझे मालुम है क्यूँ उठ रही हैं
ये इतनी ऊँची-ऊँची लहरें तुझमें
क्यूंकि ये उठती रही हैं मुझमें भी
और ये भी कि
इस वक्त तुम अपने दुःख के पहाड़ को
आंसुओं से ढक देना चाहते हो
और इस लिए इतना ऊँचा रो रहे हो

या फिर चाहते हो कि
इस दुनिया का वजूद इसी क्षण पिघल जाए
क्यूंकि जिसको लेकर ये दुनिया थी
वो बह कर जा चुकी है

मैं चाहता हूँ कि
गले लगा लूं तुम्हें
तुम्हारे इस कठिन समय में

क्यूंकि ये खुद को गले लगाने जैसा है

और चाहता हूँ कि
समय
किनारे पे खड़े होकर हंसने के अलावा
कुछ और भी करना सीखे

Friday, July 24, 2009

देखो तो दिल धडकनों से भर गया

देखो तो दिल

धडकनों से भर गया

साँसों को चुपके से

ये कौन छू कर गया


ये कौन छू गया, किस सपने ने

मेरी जबां नींद को

मेरी नींद की रुखसारों को

ये कौन लाल कर गया


बड़ी
खामोशी से तन्हाई उभरती है

फिर उस तन्हाई से तू गुजरती है

कैसे टूटी ये खामोशी

ये कौन आहट कर गया


दिल
को गुमान हुआ है

तू मेरा मेहमान हुआ है

अरे! ये ख्वाब के पाँव क्यूँ रुक गए

ये कौन अचानक से उठ कर गया

Thursday, July 23, 2009

चिमटे से बस इतना हीं पकड़ा गया...

(1)

पहले

तो तुमने छेड़ दी तार

और अब

जब संगीत बजने लगा है तो

कान बंद कर लिए तुमने !

(2)
जो हाथ

कभी दूर से हींबुलाने लग जाते थे,

पास आकर

कंधे पे आ जाते थे

वे अब यूँ हीं जेब में पड़े रहते हैं.

(३)

शामें

अब कुछ यूँ गुजर जाती है

कि बैठना नही हो पाता
अपने
पास

ख़ुद को महसूसते हुए

(५)

दुःख भी दो तरह के होते हैं
एक तो होता है
और दूसरा, कोई देता है

Wednesday, July 22, 2009

मैं, आप, सब....

साहिल समंदर के बाजू में बैठा
लहरों का इंतेज़ार करता रहता है

समंदर चाँद को छूने की आजमाइश में
किनारे पे बौछार करता रहता है

चाँद रात की मलमली विस्तर पे
रौशनी का मनुहार करता रहता है

उजाला कायनात के जर्रे-जर्रे में जा कर
अंधेरे को प्यार करता रहता है

तमस हर शाम अपनी ठंढई से
सूरज का स्रिन्गार करता रहता है.

हर शाम सूरज सिर रख कर सोने के लिए
साहिल की गोद का इंतेज़ार करता रहता है.

Monday, July 20, 2009

आवाज शोर की तरफ़ जा चुकी है

एक ऐसी दुनिया थी
जहाँ
आवाज कानो में नही गिरते थे
जब तक कि उसे शोर से भारी न बना दिया जाये

क्यूँकि वहां के लोग
धीरे-धीरे अपने कान मौके के अनुसार
ढालने में सक्षम हो गए थे

उसी दुनिया में
कुछ लोग
अपनी खामोशी लेकर खड़े हो जाते थे
सुने जाने के इन्तिज़ार में

उन खड़े लोगों को
उस दुनिया से
समय रहते निकाल लिया जाना जरूरी था

पर उन लोगों को
वहां से निकाल लेने का हुनर
किसी के पास नही बचा था.

Sunday, July 19, 2009

यह एक कमजोर समय है मेरे लिए.

यह एक कमजोर समय है मेरे लिए.

एक कमजोर समय,
जब मैं सोंचने के लिए मजबूर हूँ,
तुम्हारी हरी हंसी के बारे में
ऑक्सीजन से भरी बातों के बारे में
तुम्हारे होंठ और तुम्हारे गेशुओं के बारे में
तुम्हारी बेवफाई की तमाम हरकतों के बावजूद.

इस कमजोर समय में
मैं चाहता हूँ
कमजोर हो जाओ तुम भी इतना
कि रोक न सको खुद को पुकारने से नाम मेरा
और आ जाओ दौड़ती हुई
लग जाओ गले

ताकि मैं हमारे बिखराव पे हाथ रख दूँ

तुम रोओं
और मैं भी

और फ़िर इतने दिनों से
ठहरा हुआ रिश्ता फ़िर से चल पड़े

यह एक कमजोर समय है मेरे लिए
और ऐसा दिन में कई बार है .

Saturday, July 18, 2009

नींद कों अभी और जागना था !!

उसने सांस छुडा लिए अपने
अब मैं बिना धड़कन हूँ

उसकी यादें रिसती रहती हैं
मन पे काई जम आई है

तुम एक सुकून की रात हो
तुझमें जाग कर यूँ लगता है

कोई मुकम्मल नज्म नहीं है अभी
मुकम्मल तो कुछ भी नहीं

कमरे में सांस बची नहीं थी बिलकुल
उसने सारे दरवाजे बंद कर दिए थे

हम थकने की हद तक थक गए थे
पर नींद कों अभी और जागना था

अरसे तक रिश्ते खुले रह गए
फिर वे कहीं चले गए बिना बताये

तुम अपनी बाहों में फैला लो मुझे
तंग गलियों में मेरा ठिकाना है

Tuesday, July 14, 2009

मैं शुतुरमुर्ग होना चाहता हूँ !

यह मेरा हीं दुःख है
जो मुझे रुलाता है

बाहरी दुनिया के सारे दुःख
बस एक अतिरिक्त कारण हैं

पर सोंचता हूँ की
ये जो बेबात का इतना दुःख है
इसका उदगम कहाँ है
या मैं दुःख खींचने वाला चुम्बक तो नहीं

मैं भी
बहुत सारे अन्य लोगो में
शामिल हो जाना चाहता हूँ
जो हास्य फिल्में देखते हैं
बिना बात के हंसते हैं
और हंसते हुए घर लौट आते हैं
शाम को बैड्मिन्टन खेलते हैं
और राजनीति पे चर्चा करते हैं

मैं शुतुरमुर्ग होना चाहता हूँ !

चीजें जो कभी करती है खुश और कभी उदास !

इस कायनात के
बहुत सारी चीजों में से
कुछ चीजें ऐसी हैं
जो कभी कर देती है खुश और
कभी उदास, वही चीजें

वे चीजें करीब होती हैं दिल के

इतने करीब कि
निकलती हैं साँसों को छूते हुए

मोहल्ले के चौराहे से
निकलती थी जो राह तुम्हारे घर के लिए
उन पर अक्सर अपने ख्वाबों को चलते देखा है

उस बरगद के नीचे अक्सर बैठी मिल जाती है मेरी छाँव
जो तुम्हारे स्कूल के रास्ते में पड़ाव था

गर्मी की दुपहरी में
मिल जाते हैं मन के झूले
उस आम के पेड़ से झूलते हुए
जहाँ झूला करती थी अपनी सहेलियों के साथ तुम

और ऐसी ही कुछ और चीजे बहुत करीब हैं दिल के
जो कभी करती रहती है खुश और कभी उदास

एक नींद की पगडंडी पर साथ-साथ

हमारे ख्वाब
मिलना चाहते थे
ताकि देख सके एक दूसरे को
पहचान सकें सूरत
एक दूसरे की

वे कुछ देर
साथ चलना चलना चाहते थे
एक ही नींद की पगडंडी पर, हाथ थामे
शायद चुप-चाप खामोशी सुनते हुए
या फ़िर बतियाते हुए

पर हम थे
कि अलग-अलग आंखों से सोते थे.

Saturday, July 11, 2009

और लहलहा उठी हैं यादें

देर से आया है
पर बरस रहा है मानसून

मानसून के न आने की ख़बर
मुझे कर गई थी उदास

जब भी बरसता है मानसून
मैं बालकनी में कुर्सी डालकर
बैठ जाता हूँ और
देखता रहता हूँ तुम्हें

कभी सामने पार्क में
मेरे साथ भींगते हुए
कभी सड़क पे पानी के छपाके उडाते

देर से आया है
पर बरस रहा है मानसून
और लहलहा उठी हैं यादें

Friday, July 10, 2009

पर तब सिर्फ राख बची थी

सालों साल
सूखता रहा दरख्त
धूप में खड़ा, अकेला

पहले पत्ते छूटे हाथ से
फिर एक एक कर छूटीं टहनियां
उधडी फिर खाल भी

पर सावन की आँख उमड़ी नहीं

सूखा दरख्त और कितना सूखता
जल गया एक दिन

जला जब दरख्त
तो बादल काला हुआ धुएँ से
और तब बरसा सावन

पर तब सिर्फ राख बची थी गीली होने के लिए...

Wednesday, July 8, 2009

साकी.

तू किनारे पे करना इंतेज़ार साकी
मैं लौटूँगा फिर इस पार साकी

बिक जाएंगे एक दिन कौडियो में सब
तब भी बच जाएंगे ये बाजार साकी

अरसे से महरूम रखा आँसुओं से
आँखों का हूँ बड़ा मैं गुनहगार साकी

तेरे घर का दरवाजा हर दफ़ा बंद मिला
हम गुजरे तो तेरी गली से कई बार साकी

कह जाएंगे जिस रोज हम आखिरी अलविदा
रोएंगे फूट फूट ये दर-ओ-दीवार साकी

Monday, July 6, 2009

उस रोज सिर्फ रिश्ते नहीं काटे तुमने

काट कर छोटा कर दिया तुमने
हमारे रिश्ते को

उस रोज सिर्फ रिश्ते नहीं काटे तुमने
मैं भी साथ कटा था

कटी तो तुम भी होगी हीं
आखिर
उस रिश्ते में तुम भी तो थी

पर जाने कौन सी जंजीरें थीं

कि धार रख दिए थे तुमने रिश्ते पर ???

कुछ कच्ची नज़्में

कच्ची रह गयी कुछ नज़्में
इस बार भी आम के मौसम में

अभी और बड़े होने थे
पकने थे, और खूशबुएं आनी थी उनमे से

पर तेज अंधर आए
और झाड़ गये डालियां

जिसके हाथ जो लगा
वही लूट ले गया

हर साल लूटी जाती हैं कुछ कच्ची नज़्में

Friday, July 3, 2009

ताकि हंसती रहे पृथ्वी !

तुम्हीं से सीखा मैंने
जमी हुई,
दबी रुलाई को
बहा देने का हुनर

तुम खोज लेती हो
कोई कन्धा, कोई गला, कोई छाती
और रो लेती हो कुछ देर
सब कुछ भुला कर
और कभी कभी ज्यादा देर भी

तुम्हीं ने सिखाया
गले में गला ,
छाती में छाती डाल कर
रोना सारी मनुष्यता कों

कहीं भी, किसी भी हालात में
तुम रो सकती हो
सुर में सुर मिला कर
और सहला सकती हो
एक दुसरे के अनंत दुःख को
बस रो कर हीं

तुम्हें सृष्टि के शुरुआत से हीं पता है
कि अकेले रोने से अच्छा
किसी के साथ रोना है

तुम रो रो कर तैयार करती हो
आधार
कि पृथ्वी का हँसना जारी रह सके

वक्त मुझपे कर रहा है खाक से दस्तखत...

तुमने तो बताये नही
अपने दुःख,
अपनी परेशानियाँ
और मेरा मानना है कि
दुःख बांटे बगैर रिश्ते नही बनते

यूँ कब तक चलता
बिना रिश्ते के एक साथ जीना
बाहर-बाहर

आखिरकार हम नही रह पाए साथ
तुम नही हो
मेरे किसी रिश्ते में अब

और वक़्त
मुझपे कर रहा है खाक से दस्तखत...

जब मैं कहता हूँ तुमसे कि
वक़्त मुझपे कर रहा है खाक से दस्तख़त
तो सिर्फ़ यह मानते हुए
कि दुःख बांटे बगैर रिश्ते नही बनते

Thursday, July 2, 2009

अपने बिके देह में

आज फिर बेच दिए
नींद की कतरने हमने
आज फिर बाजार की चढ़ती-उतरती दामो के साथ
बाँध दिया खुद को.

आज फिर अपने बिके देह में रहना होगा मुझे
आज फिर रूह कर्ज से होकर गुज़रेगी

Wednesday, July 1, 2009

तेरे बगैर अक्सर

शामें ढल जाया करती हैं तेरे बगैर अक्सर,
अक्सर ही तेरे बगैर !

जो ढल जाया करती हैं शामें तेरे बगैर
मत पूछो कि उन शामो की रातों का क्या होता है

नीली पड़ी रहती है उनकी देह
जैसे कोई जख्म उभरते उभरते रह गया हो
भीतर का दर्द बाहर न आ पाया हो जैसे

जैसे बिस्तर पे उग आए हों पानी वाले फफोले
जिन पर जरा सा दबाब गिरे
तो फूटने का अंदेशा हो.

वे रातें कटती नहीं किसी भी आड़ी से

कोई भी सुई निकाल नही पाती
नींद के पाँव में
चुभी उस कील को,
जो सोने नहीं देती रात भर

वो शामें
जो ढल जाया करती हैं
तेरे बगैर अक्सर .....