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Monday, July 27, 2009

दोहरी तनहाई में

एक तो अपनी ...
और दूसरी तुम्हारी...
दोहरी तनहाई में जीता हूँ रोज

शायद तुम भी जीती होगी कुछ इस तरह ही

रोज शाम
वे दोनो हीं मिल जाती हैं
समंदर के साहिल के समानांतर बैठी हुई

तुम्हें भी दिखाई दे हीं जाती होगी कभी वे
तुम भी साहिल पे बैठती हीं होगी

तन्हाई हमें साहिल पे हीं तो ली जाती है

वे रहती हैं सूरज डूबने तक वहीं
मैं लौट आता हूँ उन्हें वही छोड कर

तुम्हें भी लौटना होता होगा
अंधेरा होने से पहले

अरसे से हम जी रहे हैं दोहरी तन्हाइयां
अरसे से हमारा जीना बंद है

Wednesday, July 22, 2009

मैं, आप, सब....

साहिल समंदर के बाजू में बैठा
लहरों का इंतेज़ार करता रहता है

समंदर चाँद को छूने की आजमाइश में
किनारे पे बौछार करता रहता है

चाँद रात की मलमली विस्तर पे
रौशनी का मनुहार करता रहता है

उजाला कायनात के जर्रे-जर्रे में जा कर
अंधेरे को प्यार करता रहता है

तमस हर शाम अपनी ठंढई से
सूरज का स्रिन्गार करता रहता है.

हर शाम सूरज सिर रख कर सोने के लिए
साहिल की गोद का इंतेज़ार करता रहता है.