Saturday, May 29, 2010

रिश्ते भी देह बदलते हैं...

घर लौटता हूँ
तो तुम्हारी यादें,
उसकी बाहों में खो जाती हैं

वैसे तो मुझे याद है
कि नहीं रहती इस शहर में अब तुम
पर फिर भी
धडकनों को न जाने क्या शौक है
रुक जाने का अचानक से
और दिल भी बहाने बना लेता है कि
तुम जैसा कोई दिख गया था

उधर वो अक्सर पूछ लेती है
रात को क्यूँ चौंक गए थे तुम
यूँ क्यूँ लगता है

कि कभी-कभी तुम्हारी धडकनें रुक जाती हैं

दफ्तर से लौटते हुए
नजरें मुड जाती है तुम्हारे घर की तरफ
पर कई बार भूल भी जाता हूँ
जब घर के लिए देर हो रही होती है

कभी-कभी घर लौटने पे
घंटी बजाने से पहले हीं
जब खोल देती है दरवाजा वो
तब सोंचता हूँ
यह केवल इन्तिज़ार नहीं है
तुम्हारी आँखों में भी
वो जो पिघल जाता था मिलने पर मुझसे
मैंने ऐसा कभी नहीं सोंचा
कि वो केवल इंतज़ार था

तुम्हारे जाने के बाद
सब वही तो चला रही है
कितना कुछ तो बढ़ भी गया है

दरअसल
कई बार तुम्हें याद करता
उसकी बाहों में गया हूँ
और कई बार
उसकी बाहें तुम्हारी यादों में रही हैं

तभी तो लगता है
कि सिर्फ आत्म हीं नहीं
हमारे रिश्ते भी देह बदलते हें


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Sunday, May 23, 2010

स्पर्श लौट आते हैं हथेली में

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आजकल न कविता है
न प्रेम है
और न प्रेम कवितायें

सिर्फ भेदती हुई एक खामोशी है
जो शाम के
धुंधले प्रकाश के मर जाने के बाद भी
चिलचिलाती रहती है
और एक कई रातों से नहीं सोया एकांत है
जिसमें तुम्हें कहीं न पाकर
स्पर्श लौट आते हैं हथेली में
और बिस्तर पे देर तक आवारागर्दी करते हैं

सांस में इस तरह सन्नाटा है
जैसे आवाज और जीवन दोनों हीं
मृत्यु के नोंक पे ठहरे हों

एक हफ्ते से
अखबार में रोज तस्वीर के साथ
मेरे गुम होने की सूचना छपती है
और सुबह जब मैं दफ्तर के लिए ट्रेन पकड़ता हूँ
तो लोग कहते हैं
मैं क्यूँ कुरते पाजामे में घर से निकल आया था
और घर नहीं लौटता

मैं चुप रहता हूँ
और मन हीं मन उनको बताता हूँ कि
प्रेम बिना सब मृत्यु है
और फिर वे सब

सहमति में सिर हिलाते हैं

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Wednesday, May 12, 2010

जरूरतें रात के वक़्त ज्यादा रोती थीं

लगभग हर सेकेंड
वे एक बच्चे को जन्म देती थीं
और वे खुद सात की संख्या में
हर घंटे मर जाती थीं

वे कुछ ऐसी दुनिया की औरतें थीं
जो सिर्फ आंकड़ों में विकसित होती थी

जिस शहर में
प्रधानमंत्री का निवास स्थान था
उसमें सब-सहारा से भी अधिक कुपोषित लोग थे
मगर सरकार का यह कहना था
कि ऐसा सिर्फ जनसँख्या ज्यादा होने की वजह से था

बच्चों को उनके पैदा होते हीं
हाथ में दुःख थमा दिया जाता था
दुःख जब बजता था
वे बच्चे मुस्कुराते थे
दुःख को झुनझुने की तरह काम लेने वाली
ये एक अलग दुनिया थी

बच्चों को
रात में थप्पड़ खाए बिना नींद नहीं आती थी

मार खाकर वे रोते हुए थक कर
खाली पेट सो जाते थे
ये तरीका उस दुनिया की माओं ने इजाद किया था

उनकी माओं के स्तन
कभी इतने विकसित नहीं होते थे
कि उनमें दूध आ सके
और उनके पिता
उस शहर की सड़कों पे रिक्शा चलाते थे
जहाँ प्रधानमंत्री रहते थे
और जहाँ सड़कों के किनारे
फूटपाथ बनाने पे स्थाई रोक थी
क्यूंकि सरकार मानती थी
कि पैदल चलने वाले कहीं से भी जा सकते थे
इसलिए सड़कों को सिर्फ तेज गाड़ियों के लिए छोड़ दिया जाए

हालांकि,
सरकार ये खुल कर नहीं बताती थी
कि पैदल चलने वाले लोग दरअसल
विकास की रफ़्तार में खड्डे थे
पर प्रयत्नशील थी कि
२०२० तक सारे खड्डे भर दिए जाएँ
और इसलिए आंकड़ों पे
अंधाधुंध काम हो रहा था

विकास के इस षड़यंत्र में
पानी दो रुपये प्रति घूँट बेचा जाता था
और ये कोशिश की जा रही थी
कि लोग भोजन खरीदने से पहले
दांतों की संडन रोकने के लिए टूथपेस्ट खरीदें
क्यूंकि प्रधानमंत्री पे
टूथपेस्ट की बिक्री बढाने के लिए
कई तरह के दबाब थे

तो इस तरह
विकास के इस नए युग में
चूँकि सड़कों के किनारे फूटपाथ नहीं थे
उन सभी बच्चों के पिता
अपने रिक्शों पे सोते थे
और ज्यादातर रातों को
उनके सपने नीचे गिर कर टूट जाते थे
और तब उनकी जरूरतें ज्यादा रोती थीं

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Friday, May 7, 2010

गुजरा वक़्त कान के पास आ कर बोलता है...

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पहाड़ों के नीचे की खाई

झील बन गयी थी
खारे पानी की
पर आँखों का बरसना नहीं रुका था

रुका तो वो भी नहीं था...
चला गया था आँखों से निकल कर
जाने किसकी फिक्र थी और कैसी जिद,
पीछे छोड़ गया था
पहाड़ पे बैठी आँखें

पर गुजरा वक़्त
बिना बोले नहीं मानता,
बिल्कुल कान के पास आ कर बोलता है
और गर अनसुना करो कभी
तो मारता है हथौड़ा

हथौड़े उसके भी पड़ते होंगे
और वो भी बरसना चाहता होगा

पर उसकी खाई कहीं खो गयी होगी
आखिर फैसला उसका हीं तो था

उस पहाड़ों के नीचे की खाई
जो लबालब भर जाती है
हर साल बारिश के मौसम में,
पानी उसका खारा हीं रहता है

बारिश के मौसम में दोनों को साथ होना बहुत पसंद था

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मैंने बहुत तेज चलाई थीं
चप्पुएँ
पर उस रात के दोनों किनारे
पानी में देर तक डूबे रहे थे

वक़्त किसी कर्ज की तरह था
किसी तरह चुक जाए बस
पर वो यूँ
गिर रहा था माथे पे
जैसे यातना की बूँद
टप..........और फिर बहुत देर के बाद
एक और टप।

सपनों का घटता-बढ़ता रहा आकार
कभी वे नींद से लम्बे हुए
और कभी झपकियों से छोटे

सुबह तुम्हारा फैसला था
कि तुम चले जाओगे

वो दिन है और आज का दिन है
ख्वाबों की आँख नहीं लगी तबसे
और आँखें तो
तब से उस पहाड़ पे बैठी रहती है...

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Sunday, May 2, 2010

सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी

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इस घडी
जब खुश सा है यहाँ हर कोई
ठहाके, संगीत
फैशन, पार्टी
सिगरेट, शराब
भोग-विलास, उससे जुड़ा सुख
और न जाने कितनी और चीजें,
मैं देख रहा हूँ
इन सब की वजह से
किस तरह मेरा दुख उपेक्षित होकर
हाशिये पे चला गया है

सोंच रहा हूँ बहुत सारे लोग
जो हासिये पे धकेल दिए गए हैं
उनकी वजह भी तो
मुख्यधारा के लोगों की उपेक्षा हीं है

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रात गर्म थी हवा
लू के थपेड़े उड़ रहे थे हर तरफ
आंधी सा हाल था
इतनी धूल उड़ी कि इंसानियत ने बंद कर ली आँखें
अंधेरा कसा रहा चप्पे चप्पे पे.
काले आसमान से एक तारा भी नही निकला
जो टिम-टिमा दे जरा देर के लिए भी.

सुबह सफाई वाले ने बाल्टी भर-भर जिंदगी फेंकी.


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वे पहली बार
आए हैं , घर से इतनी दूर

पहली बार की है
ट्रेन से यात्रा
इतना अच्छा, पहली बार
लग रहा है उनको

जिन्दगी बीती यूँ हीं कठिनाइयों में
जुटाते रहे पाई-पाई
कुछ कर नहीं पाए जीने के जैसा

अभी थोड़ा बेफिक्र हुए हैं
खा-पी रहे हैं इच्छानुसार
फल-फूल, पी रहे हैं ज्यूस

कर रहे हैं मजा,
मना रहे हैं पिकनिक
आये हैं जमीन बेच कर
इलाज के खातिर.

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