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Sunday, October 24, 2010

वे कंधे नहीं पहुंचे अब तक

जहाँ बैठ कर मैं रोया था
वहां अभी तक
तुम्हारे कंधे नहीं पहुंचे

मैं अक्सर टाल जाता हूँ
वहां से गुजरना,
वहां बैठ कर सुबकता हुआ मैं
तेज कर देता है अपना रोना
मुझे देखते हीं

पर अक्सर नहीं भी टाल पाता
और ये देखने पहुँच हीं जाता हूँ
कि शायद तुम्हारे कंधे पहुँच गए हों अब

मैं जानता हूँ
कहाँ होंगे तुम्हारे कंधे अभी
और अगर पहुंचूं वहां मैं
तो तुम रोक न पाओ और बढ़ा दो उन्हें
पर जाने कौन है
जो जिद पे अड़ा है कि
वे कंधे वहां क्यूँ नहीं पहुंचे अभी तक
जहाँ बैठ कर मैं रोया था


________

Sunday, July 25, 2010

खाल उतारने की प्रक्रिया जारी है!


ये अच्छा है
कि इस कविता में जिन्हें आना था
उनमे से कुछ तो अभी व्यस्त हैं
एक मरे बैल की खाल उतारने में
कुछ अपनी छाती से
भूख पिला रही हैं अपने बच्चों को
और कुछ इस इंतज़ार में हैं
कि उनके देह हों तो वे उन्हें बेंच सके
और इसलिए ये संभव है
कि कविता अब वीभत्स होने से बच जाए

जहाँ खाल उतारने की प्रक्रिया जारी है
वहां किसी उत्सव की आशा में
ढेर सारे बच्चे
घेरे में खड़े हैं
अपनी लपलपाती आँखों के साथ
और बार-बार लताड़ने पे भी
पीछे नहीं हटते

उधर ऊपर ताड़ के पेंड़ो पे बैठे
कौवो,गिद्धों और चीलों को भी
इस उत्सव का भान है
और उनके इन्तिज़ार नहीं थकते
वे शायद ईमानदार भी हैं
नहीं तो बस्ती में कई बच्चों का वजन इतना भर है
कि उन्हें लेकर उड़ा जा सकता है

क्षमा कीजिये गर
ये कविता वीभत्स होती जा रही हो
और कवि असंतुलित
जबकि पूरी कोशिश की जा रही है कि ऐसा न हो
जैसे इस तरह की कई चीजें
अभी आपसे छुपाई जा रही हैं कि
बाढ़ और अकाल के दिनों में
सिर्फ सड़ी अंतड़िया होती हैं उनके खाने के लिए

वैसे मुझे लगता है
कवि के असंतुलित हो जाने में
कोई बुराई नहीं है
गर दुनिया के एक अरब लोग भूख से दबे हों
और उठ नहीं पा रहे हों

और कुछ लोग लगे हों इसमें कि
उनके खाल उतारे जा सकें

(संजुक्त राष्ट्र के हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के आठ राज्यों में २६ अफ़्रीकी देशों से ज्यादा गरीब लोग रहते हैं )

***

Wednesday, June 30, 2010

***

जिनको भी दुःख हो
वे आयें
समझे मेरी छाती को
अपनी छाती
पीटे उसे
रोयें
और थक कर सो जाएँ
उठ कर भूल जाएँ
अपने काम में लग जाएँ

कि ये दुःख कभी कम होने वाला नहीं...

***

Friday, May 7, 2010

गुजरा वक़्त कान के पास आ कर बोलता है...

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पहाड़ों के नीचे की खाई

झील बन गयी थी
खारे पानी की
पर आँखों का बरसना नहीं रुका था

रुका तो वो भी नहीं था...
चला गया था आँखों से निकल कर
जाने किसकी फिक्र थी और कैसी जिद,
पीछे छोड़ गया था
पहाड़ पे बैठी आँखें

पर गुजरा वक़्त
बिना बोले नहीं मानता,
बिल्कुल कान के पास आ कर बोलता है
और गर अनसुना करो कभी
तो मारता है हथौड़ा

हथौड़े उसके भी पड़ते होंगे
और वो भी बरसना चाहता होगा

पर उसकी खाई कहीं खो गयी होगी
आखिर फैसला उसका हीं तो था

उस पहाड़ों के नीचे की खाई
जो लबालब भर जाती है
हर साल बारिश के मौसम में,
पानी उसका खारा हीं रहता है

बारिश के मौसम में दोनों को साथ होना बहुत पसंद था

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मैंने बहुत तेज चलाई थीं
चप्पुएँ
पर उस रात के दोनों किनारे
पानी में देर तक डूबे रहे थे

वक़्त किसी कर्ज की तरह था
किसी तरह चुक जाए बस
पर वो यूँ
गिर रहा था माथे पे
जैसे यातना की बूँद
टप..........और फिर बहुत देर के बाद
एक और टप।

सपनों का घटता-बढ़ता रहा आकार
कभी वे नींद से लम्बे हुए
और कभी झपकियों से छोटे

सुबह तुम्हारा फैसला था
कि तुम चले जाओगे

वो दिन है और आज का दिन है
ख्वाबों की आँख नहीं लगी तबसे
और आँखें तो
तब से उस पहाड़ पे बैठी रहती है...

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Sunday, April 4, 2010

तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद

मैं तुम्हें हमेशा याद रखना चाहता था
इस तरह कि
तुम्हारे बारे में सोंचते हुए
मैं चबा जाऊं अपने नाख़ून
और मुझे दर्द का एहसास तक न हो

मैं चाहता था
कि तुम मेरी जिन्दगी का
सबसे बड़ा दर्द बन कर रहो,
एक घाव बन कर
जिसमें से हमेशा मवाद निकले
ताकि तुम्हें बेवफा कहने की जरूरत न पड़े

पर मेरे साथ ऐसा हुआ है कि
चीजें हमेशा मेरे चाहने के विपरीत हुईं हैं
जैसे चली गयी थी तुम एक दिन मेरे चाहने को दरकिनार करके
वैसे हीं तुम भुला दी गयी हो
मेरे ना चाहने के बावजूद

******
तुम्हें भुला दिया है
और यह अपने आप में काफी है
दिल को सुकून और
जिस्म को ठंढी सांस देने के लिए

उस जिस्म को,
दर्द ने चूस कर छोड़ दिया है जिसे

मगर मैं खुश हूँ कि
आज सुबह आखरी बार रोने के बाद
जब आईने ने पकड़ कर
मुझे अपने सामने खड़ा किया
तो वहां एक लचक देखी मैंने
जैसे चेहरे से एक भारी दुःख नीचे खाई में लुढ़क गया हो

******
अब मुझे वे दिन याद नहीं आयेंगे
जिन दिनों में
मैं ठिठका सा पड़ा रहता था
उस इंतज़ार में
कि तुम मेरा स्पर्श उठा कर
जाने कब अपने बदन पे रख लोगी
और वे वहां ठहर जायेंगी
कभी न ख़त्म होने वाली फुरसत की तरह

वे पल भी अब नहीं होंगे
जब हर लम्हें को खींच कर
तुम समय से आगे इस तरह ले जाती थी
कि वे वक़्त के किसी निर्वात में ठहर जाते थे
और मैं अधिकतम गति से
झूल जाता था उन लम्हों को पकड़ के

अब वे दिन भी नहीं होंगे
जब मैं लिख दिया करता था
तुम्हारे बालों पे क्षणिकाएं
और तुम कहा करती थी
कि तुम्हारे बालों पे नहीं हो सकती क्षणिकाएं
इसलिए ये किसी दूसरे के बालों पे हैं

******
ये सब अब कुछ नहीं होगा
ये सब होता गर तुम होती
भले ही कोसता तुम्हें, कहता बेवफा
और लिखता कवितायें
कि तुम पढ़ सको और हो सको बर्बाद.

Thursday, March 25, 2010

अपने दुखों को सार्वजनिक करने से बचते हुए...

1]

वे कहीं भी और कितना भी रो सकते हैं
चाहे सड़क पे जोर-जोर से
या फिर कविता में चुप-चुप

कवि होने से
उन्हें मिली हुई है इतनी छूट
और ऐसा मान लिया गया है कि रोना
उनके काम का हिस्सा है
और इसलिए उस पर ज्यादा कान देने की जरूरत नहीं है

हाँ...कभी-कभी ताली बजाई जा सकती है
अगर वह बहुत सुन्दर या संगीतबद्ध रोये तो

उन्हें गाडियों के शोर के बीच
अपनी हेलमेट के भीतर चेहरा छुपाते हुए
या चलती ट्रेन के शौचालय में
नहीं रोना होता,
जैसा कि वे लोग करते हैं जो कवि नहीं हैं

2]

आम आदमी पे आजकल
खुश दिखाई देने का एक अतिरिक्त दबाब है.
जब भी हम मिलते हैं
उसके चेहरे पे दीखता है एक भाव
वैसा, जैसे कि उसने अभी रोना शुरू हीं किया हो
और बीच में हीं मुस्कुराना पड़ गया हो

तमाम तरह के दुखों के बीच से गुजरते हुए,
वे थकते रहते हैं खुश दीखते रहने की कोशिश में
और करते चलते है
कई तरह के दुखों कों स्थगित
किसी उपयुक्त समय और मौके के लिए

साथ हीं साथ
वे डरते भी रहते हैं
नकारात्मक दृष्टिकोण रखने के
नकारात्मक परिणामों से
और इसलिए
आधे से ज्यादा खाली ग्लास कों
जबरदस्ती आधे से ज्यादा भरा देखते हैं

वे लगातार जीते रहते हैं खुश रहने के दबाब को
और एक दिन मर जाते हैं
तब उनके चेहरे पे
खुश दिखाई पड़ते रहने की वेदना उभरी हुई होती है

3]

अपने दुखों को
सार्वजनिक करने से बचना सिखाया जाता है उन्हें,
उन्हें नहीं बताया जाता
कि कब और कैसे रोयें वे,
नहीं सिखाया जाता उन्हें रोने का सही इस्तेमाल

धीरे-धीरे जब बढ़ जाता है
दुःख का दबदबा
और वह परिवर्तित होने लगता है
हृदयाघात या रक्तचाप में
वे सुबह सुबह किसी पार्क में
एक झुण्ड बनाते हैं
और जोर-जोर से हँसते हुए रोते हैं

4]

जब भी मौका हाथ लगे
तुम जरूर रो लेना
उस रोते हुए कवि या उसकी रोती कविता की आड़ में
क्यूंकि
एक अकेला कवि कितनी देर और
रोता रह पायेगा तुम्हारे लिए
जबकि उसे अपने लिए भी रोना है ....

Friday, February 12, 2010

फैशन, मैं और मेरा डर

पुरानापन फैशन में था
पुरानी हवेलियाँ और किले
नए तरीके से पुराने बनाये रखे जाते थे,
उजाड़-झंखाड़ हो चुकी इमारतों पर
लाखो डॉलर खर्च करके
उनके नवीकरण के दौरान
उनका पुरानापन बचा लिया जाता था

नए लोगों में पुरानी चीजों के लिए बड़ा लगाव था
मगर सिर्फ चीजों में
पुराने लोगों में से उन्हें 'बास' आती थी


अमीर लोगों के बीच
गरीब लगने का फैशन था
वे फटी और घिसी हुई जींस ऊँचे दामों में खरीदते थे
और गरीब होने का अमीर सुख उठाते थे
वे वर्तमान में हीं 'एंटिक' हो जाने के प्रयास में थे
इसलिए अक्सर पुराने 'स्टाइल' में नजर आते थे

फैशन के दीवाने लोग
इस बात की बहुत अधिक फिक्र करते थे
कि वे बेफिक्र दिखें
वे 'रिंकल' वाले कपडे खरीदते थे,
बेतरतीब बाल रखते थे
और उनके बीच 'प्रेस' न करने का फैशन था
इसी तरह वे कमर से बहती हुई पैंट पहनते थे
मगर अक्सर
इंसानियत के नाले में बहते जाने के बारे में वे बेखबर होते थे

शो को रियल बनाने का फैशन था
रियलिटी शो में भावुकता के 'सीन' लिखे और फिल्माए जाते थे
वहाँ बहुत अदबी लोग, बेअदबी पे उतर आते थे
कुछ यूँ हँसते थे कि समाज की नब्ज हिल जाती थी
उनमे से कुछ यूँ रो पड़ते थे
जैसे उन्हें पता हीं न हो
कि भारत की एक तिहाई आबादी
इतने तरह के दर्दों में होती है
कि मुश्किल से हीं कभी रो पाती है
दरअसल भावुक होना फैशन में था
और वे डरे हुए थे कि कहीं उनके पास बैठा व्यक्ति
उससे भी छोटी बात पे उससे ज्यादा न रो दे

इन सबको देखता कवि सोंचता है
कि एक घर जो वास्तव में बहुत पुराना है
कि एक आदमी जिसकी जींस वास्तव में फटी है
कि एक आदमी जिसके कपडे वास्तव में मुचड़े हैं
और बाल बिखरे हैं
और जो दर्द से रो रहा है
वो इनके समकक्ष क्यों खड़ा नहीं है

हालांकि कवि कों ये डर भी है
कि कहीं ऐसा न हो
कि ऐसा सोंचना फैशन में हो
और इसलिए वो सोंचता हो...

Sunday, December 27, 2009

ये दर्द रोज कम होता जा रहा है !!

सूरज जल्दी-जल्दी डूब कर
शाम कर दिया करेगा
और शाम अपने तन्हाई वाले हाथ रखने के लिए
मेरे कंधे नही तलाशा करेगी

तमाम खीझ और उब के बावजूद
आत्मा बार-बार लौटा करेगी
वासना से लदी उसी सूजन वाले शरीर में
जिसे घसीटते रहने में

अब कोई उत्तेजना बाकी नही होगी

बिना तलब के हीं
मुझे जला लिया करेगा
थोडी-थोडी देर पे एक लंबा सिगरेट
और पी-पी कर मेरे ख़त्म होने का
इंतज़ार किया करेगा

रात पे कान रख के
मैं सहलाना चाहूँगा झींगुरों की आवाजें
और ख़राब होती टियुबलाईट की आवाज भी
मेरे मौन में कोई छेड़ नही कर पाएगी

आँखे जाग कर नींद देखने की
हर रोज कोशिश करेगा
पर कोई पागल सा सपना
उन्हें अफीम दे कर सुला दिया करेगा हर रोज

तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है

और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के

पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!

Thursday, October 29, 2009

हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए !

लोग किनारे की रेत पे
जो अपने दर्द छोड़ देते है
वो समेटता रहता है
अपनी लहरें फैला-फैला कर
हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए

जब भी कोई उदास हो कर
आ जाता है उसके करीब
वो अपनी लहरें खोल देता है
और खींच कर भींच लेता है अपने विशाल आगोश में
ताकि जज्ब कर सके आदमी के भीतर का
तमाम उफान

कभी जब मैं रोना चाहता था
पर आंसू पास नहीं होते थे
तो उसने आँखों कों आंसू दिए थे
और घंटों तक
अपने किनारे का कन्धा दिया था

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...

और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!

Sunday, September 27, 2009

सूखे लोगों की सभ्यता

मकान पक्के होते गये
और दीवारे भी

पक्के और सख्त साथ- साथ

दर्द सुनने के लिए न कान रह सके खुले
और न दिल के कोशे उनके
बारीक से बारीक पोर भी
पाट दिए गये
गारे-चूने से

कंपकपाती निरीह कराहें
उन दीवारों के दोनों तरफ
किसी कोलाहल का हिस्सा ही लगती रहीं

आसुओं से भींग कर
ढह जाने वाली दीवारें
बची नहीं इन पक्की उंची इमारतों में

अब
ये पक्के मकानों, सख्त दीवारों और सूखे लोगों की सभ्यता है
जहाँ आंसू पिघलाते नहीं और चीख कोलाहल लगती है.

Thursday, August 27, 2009

आंखों की धार भी चुपचाप बहती है !

एक सन्नाटा है यहाँ अब
छितराया हुआ
फर्श पर, बरामदे में, आँगन में, ज़ीने पर
बाहर लॉन में
हर तरफ

सन्नाटे को देखने के लिए
नजर घुमानी नहीं पड़ रही

सब खाली हो चुके हैं आवाज से
न ताकत बची है बुदबुदाने की भी किसी में
और न वजह

हवा सांय-सांय भी नहीं कर रही
आंखों की धार भी चुपचाप बहती है

जाने कौन तोडेगा ये सन्नाटा अब
वो तो कह गया है
कि कभी नहीं आएगा

Thursday, June 25, 2009

खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे

उसने कहना छोड़ दिया
और मैने भी

वो सारे शोर
जो कभी कमरे और
उनसे निकल कर बरामदे तक पहुँचते थे,
भीतर ही उमड़ने घूमड़ने लगे गुबार बनकर

पर खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे
और सांकलें चढी रही दरवाजों पे
हम अड़े रहे अपनी-अपनी जिद पर

हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग

पानी अलग अलग धाराओं में बह कर दूर निकल गये

आज हम सोंचते हैं
कभी हम एक साथ, एक कोने में
बैठ कर रो लेते.