Thursday, March 25, 2010

अपने दुखों को सार्वजनिक करने से बचते हुए...

1]

वे कहीं भी और कितना भी रो सकते हैं
चाहे सड़क पे जोर-जोर से
या फिर कविता में चुप-चुप

कवि होने से
उन्हें मिली हुई है इतनी छूट
और ऐसा मान लिया गया है कि रोना
उनके काम का हिस्सा है
और इसलिए उस पर ज्यादा कान देने की जरूरत नहीं है

हाँ...कभी-कभी ताली बजाई जा सकती है
अगर वह बहुत सुन्दर या संगीतबद्ध रोये तो

उन्हें गाडियों के शोर के बीच
अपनी हेलमेट के भीतर चेहरा छुपाते हुए
या चलती ट्रेन के शौचालय में
नहीं रोना होता,
जैसा कि वे लोग करते हैं जो कवि नहीं हैं

2]

आम आदमी पे आजकल
खुश दिखाई देने का एक अतिरिक्त दबाब है.
जब भी हम मिलते हैं
उसके चेहरे पे दीखता है एक भाव
वैसा, जैसे कि उसने अभी रोना शुरू हीं किया हो
और बीच में हीं मुस्कुराना पड़ गया हो

तमाम तरह के दुखों के बीच से गुजरते हुए,
वे थकते रहते हैं खुश दीखते रहने की कोशिश में
और करते चलते है
कई तरह के दुखों कों स्थगित
किसी उपयुक्त समय और मौके के लिए

साथ हीं साथ
वे डरते भी रहते हैं
नकारात्मक दृष्टिकोण रखने के
नकारात्मक परिणामों से
और इसलिए
आधे से ज्यादा खाली ग्लास कों
जबरदस्ती आधे से ज्यादा भरा देखते हैं

वे लगातार जीते रहते हैं खुश रहने के दबाब को
और एक दिन मर जाते हैं
तब उनके चेहरे पे
खुश दिखाई पड़ते रहने की वेदना उभरी हुई होती है

3]

अपने दुखों को
सार्वजनिक करने से बचना सिखाया जाता है उन्हें,
उन्हें नहीं बताया जाता
कि कब और कैसे रोयें वे,
नहीं सिखाया जाता उन्हें रोने का सही इस्तेमाल

धीरे-धीरे जब बढ़ जाता है
दुःख का दबदबा
और वह परिवर्तित होने लगता है
हृदयाघात या रक्तचाप में
वे सुबह सुबह किसी पार्क में
एक झुण्ड बनाते हैं
और जोर-जोर से हँसते हुए रोते हैं

4]

जब भी मौका हाथ लगे
तुम जरूर रो लेना
उस रोते हुए कवि या उसकी रोती कविता की आड़ में
क्यूंकि
एक अकेला कवि कितनी देर और
रोता रह पायेगा तुम्हारे लिए
जबकि उसे अपने लिए भी रोना है ....

23 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

ओम जी थोड़े दिनों के बाद आपकी कविताओं तक पहुँचा हूँ वहीं खूबसूरत भावनाओं का प्रवाह देखने को मिला...

आज की दुनिया में दिखावे के लिए ही सही हर आदमी चेहरे पर मुस्कान मिले फिरता है....बढ़िया क्षणिकाएँ....प्रस्तुति के लिए बहुत आभार....नमस्कार ओम जी

सुशीला पुरी said...

आपकी कविताएँ पढ़कर एक कवि की कुछ लाइने याद आ रहीं हैं ------
'दुख इतना बड़ा था की बीत गई तमाम उम्र .सुख इतना बड़ा था की समझ ही नही पाये की कहाँ से शुरू करें ज़िंदगी '.
इतनी सघन संवेदना हेतु आभार !!!!!

अमिताभ मीत said...

एक कवि कितनी देर और
रोता रह पायेगा तुम्हारे लिए
जब कि उसे अपने लिए भी रोना है ..

बहुत खूब ......

kshama said...

Omji, hameshaki tarah sashakt rachnayen...yah bhi sach hai.ki, jo jitna hanste rahta hai,wah andarse utnahi dukhi hota!

Randhir Singh Suman said...

nice

Yogesh Verma Swapn said...

ek filmi geet yaad aa gaya......... dil jalta hai to jalne de, aansoo na baha faryaad na kar............. sunder abhivyakti,

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

आम आदमी पे आजकल
खुश दिखाई देने का एक अतिरिक्त दबाब है
जब भी हम मिलते हैं
उसके चेहरे पे दीखता है एक भाव
वैसा, जैसे कि उसने अभी रोना शुरू हीं किया हो
और बीच में हीं मुस्कुराना पड़ गया हो

यही हाल है हर आदमी का
सुन्दर कविता....

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

om ji...

maza aa gaya bhai ji!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आम आदमी की कहानी कविता में खूब व्यक्त की है...सुन्दर अभिव्यक्ति

vandana gupta said...

om ji

nishabd hun ..............kahan utar kar likha hai?badi katu sachchayiyan kah di hain.

डिम्पल मल्होत्रा said...

धीरे-धीरे जब बढ़ जाता है
दुःख का दबदबा
और वह परिवर्तित होने लगता है
हृदयाघात या रक्तचाप में
वे सुबह सुबह किसी पार्क में
एक झुण्ड बनाते हैं
और जोर-जोर से हँसते हुए रोते हैं



प्रेम,विरह-पीड़ा आपकी कविताओ की विशेषता है.इनमे करूणा की भावना रहती है पर उसमे निराशा या अवसाद का कोहरा नहीं होता.यह करूणा बौद्दो की महाकरूणा है.जिसमे दूसरों के दुखो में द्रवीभूत होने की क्षमता है.आपकी कविताओ में विश्व का दुःख आपका दुःख बन गया है-आपकी वेदना व्यक्ति की संकीर्ण परिधि से बाहर आकर जीवन और जगत की व्यापक सीमा पर आ गयी है.

सागर said...

अबकी तो कमाल कर दिया आपने... ब्लॉग का रंग बदल लें... मुझे पढने में परेशानी होती है...

आम आदमी पे आजकल
खुश दिखाई देने का एक अतिरिक्त दबाब है

बाह बाह... सब्ब्बास्स्स्स. !

पारुल "पुखराज" said...

जोर जोर से हसते हुए रोते हैं .....
ठीक बात ...

अच्छी कविता

अजित गुप्ता का कोना said...

कवि को तो हलाहल पीना ही है, कभी अपने लिए और कभी दूसरों के लिए। बढिया अभिव्‍यक्ति।

संध्या आर्य said...

दुखो के गहरे रंग
जब इच्छाओ को छूते है
तब जाकर एक आम आदमी मे
खास होने की क्षमता आती है!

Abhishek Ojha said...

जिस रचना में पढ़ते-पढ़ते अपनी बातें अपनी सोच दिखने लगे वो स्वाभाविक ही पसंद आती है. और आपकी रचनाएँ उसी श्रेणी में आती हैं.

अपूर्व said...

हाँ...कभी-कभी ताली बजाई जा सकती है
अगर वह बहुत सुन्दर या संगीतबद्ध रोये तो

आपकी यह कविता मुझे कवि प्रजाति के एंथम की तरह लगती है..यहाँ रोने के कारण हैं निवारण नही..और यह दुख शाश्वत हैं..अंतर्मन मे घनीभूत..और कवि जैसे कोई अभिशप्त ऋषि..जो उन दुखों का भार अपने कंधों पर उठाता है ताउम्र...
एक अकेला कवि कितनी देर और
रोता रह पायेगा तुम्हारे लिए
जबकि उसे अपने लिए भी रोना है ....

तभी कवि मुझे दास-कबीर की तरह लगता है

सुखिया सब संसार है, खाबै और सोबै
दुखिया दास कबीर है ’जागै’ और रोबै!!

Pawan Kumar said...

आर्य साहब......
भाई पुराना प्रशंसक हूँ......कमाल कि कवितायेँ गढ़ डालीं है आपने.........हमारी शुभकामनायें स्वीकार करें

Meenu Khare said...

वे लगातार जीते रहते हैं खुश रहने के दबाब को
और एक दिन मर जाते हैं
तब उनके चेहरे पे
खुश दिखाई पड़ते रहने की वेदना उभरी हुई होती है....


यथार्थ से जुड़ी हुई मर्मस्पर्शी रचना.

आनन्द वर्धन ओझा said...

अप्रतिम अभियक्ति ! भावनाएं घनीभूत होकर बोल पड़ी हैं ! गति और प्रवाह भी गज़ब का ! भाषा अभियक्ति की चेरी बन गई लगती है!
साधुवाद ओमजी ! बधाई !!
सप्रीत--आ.

के सी said...

एक कवि कितनी देर और
रोता रह पायेगा तुम्हारे लिए
जब कि उसे अपने लिए भी रोना है ..

बहुत खूब ......

neera said...

रोने की नस और साँसों को महीनता से पकड़ा है कविता के साथ रो भी लिए और अंत में मुस्कुरा भी ...

Himanshu Pandey said...

इस प्रविष्टि को अनगिन बार पढ़ा है, फीड रीडर में अनरीड रहने दिया था आजतक के लिए ! अज फिर पढ़ रहा हूँ..बस इतना कहने के लिए कि .. अप्रतिम !
बहुत ही सध गयी हैं कविताएं ! अनुभूति और अभिव्यक्ति की होड़ भी निरख रहा हूँ ! गज़ब हैं सरकार !
आदरणीय़ आनन्दवर्द्धन जी की बात दोहराऊँगा - "भावनाएं घनीभूत होकर बोल पड़ी हैं ! गति और प्रवाह भी गज़ब का ! भाषा अभिव्यक्ति की चेरी बन गई लगती है!"