सुबह-सुबह इक ख्वाब गिर गया है आँख से
नींद काँप उठी थी शोर से
आवाज,
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
हमारे समानांतर
परन्तु तेज बढ़ते हुए
यह हिला देगी
एक दिन इस पूरी कायनात को
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
सुनने के सम्बन्ध में कुछ भी हो सकता है
जिसके बारे में अभी से तय करना
मामले को कम गंभीरता से लेना है
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
आवाज की हमने कभी नही सुनी !!
16 comments:
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
और शायद --------
केवल वही जुबान बचेगी
जो उकेर सके
इन कर्णातीत ध्वनियों को
बेहतरीन रचना
क्या बात है ओम जी वहीं पहले की तरह शानदार और सुंदर भाव जिस भाव को पिरोना सभी के बस की बात नही ..एक उम्दा रचना..बधाई
बहुत गहन और उम्दा रचना!! आनन्द आया पढ़ने में.
सुबह-सुबह इक ख्वाब गिर गया है आँख से
नींद काँप उठी थी शोर से
सुन्दर रचना।
आखरी पंक्तियों तक जिस तरह आप लाये ... लाजवाब!
स्पेल्लिंग की गलती हो गयी थी और अर्थ का अनर्थ हो गया था...
अंतिम पैरा जानदार है... बेहतरीन...
ब्लॉग अचानक से बहुत सुन्दर दिख रहा है अब :)
गलती हमारी है
हमने कभी
ये जानने की कोशिश नही की
कि दिनानुदिन बढती हुई चीखों में
वह चीख-चीख कर क्या कह रही है
सटीक अभिव्यक्ति....
"आवाज/जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी/संगीत से निकल कर/शोर हो चुकी है"
...दिनों बाद अपने कवि के द्वारे आया तो फिर से कविता की साफ़गोई ने प्रभावित किया, शब्दों के प्रिसाइज बुनावट ने चमत्कृत किया है।
very very nice
@गौतम जी,
जाने क्यूँ जाना- पहचाना सा लगा चेहरा जोगेन्द्र शेखावत जी का, अपना सा लगा..ऐसा लगा अभी तो उनके जन्म दिन पे केक में शामिल हुआ था...और...
are vaah om bhaayi....kyaa baat... kya baat...kyaa baat....!!
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
और शायद --------
केवल वही जुबान बचेगी
जो उकेर सके
इन कर्णातीत ध्वनियों को
aap jaise kalakaar ko kya kaye ,sirf padhne aur sikhne ki khwahish hai .behtrin rachna
आखरी पंक्तियों तक जिस तरह आप लाये ... लाजवाब!
वैसे कुछ बिम्ब आपकी कविताओं मे दोहराव का आभास देते हैं..मगर यहाँ पर उनका बार-बार आना नही वरन उपादेयता महत्वपूर्ण है..खासकर आवाज की नियति की यह रेंज..
जिसकी अन्तिम स्थिति मौन होनी चाहिए थी
संगीत से निकल कर
शोर हो चुकी है
यहाँ संगीत और शोर आवाज के इस स्पेक्ट्रम के दो छोर महसूस होते हैं..और सोचने योग्य है कि कुछ लोगों का संगीत दूसरों के लिये शोर होता है तो कुछ शोर बाकियों के लिये संगीत होते हैं..और मौन..इ्न्ही दो छोरों के बीच कहीं पर समाहित..अदृश्य मगर उपस्थित!..आवाज की सबसे सार्थक परिणति मौन होती है..जो अदृश्य हो कर भी सार्वनिष्ठ हो, कर्णातीत हो कर भी सहज श्रवणीय हो..!
इसी लिये दैवीय संगीत अनहद-नाद होता है..ध्वन्यातीत ध्वनि!!
केवल वही कान बचे रह जायेंगे
जो सुन पायेंगे
कर्णातीत ध्वनियों को
अपूर्व की टिप्पणी सार्थक है !
कविता तो सुन्दर है ही ! आभार ।
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